ब्रिक्स मूल रूप से पाँच देशों से बना था: ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका। इसकी शुरुआत 2009 में पहले चार देशों के साथ हुई और एक साल बाद दक्षिण अफ्रीका इसमें शामिल हुआ। ब्रिक्स की परिकल्पना एक ऐसे मंच के रूप में की गई थी जो वैश्विक दक्षिण के हितों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करे। ब्रिक्स के पाँच सदस्य विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या और विश्व की अर्थव्यवस्था का एक-चौथाई हिस्सा हैं। 2024 में जोहान्सबर्ग में आयोजित 16वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में, इस मंच में छह और देशों - मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इंडोनेशिया - को शामिल करने का निर्णय लिया गया। अब ब्रिक्स के ये ग्यारह देश मिलकर विश्व की 49.5 प्रतिशत जनसंख्या, विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत और विश्व के व्यापार का 26 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करते हैं।

ब्रिक्स कोई गुट या गठबंधन नहीं है। यह वैश्विक दक्षिण के देशों का एक समूह है (रूस एकमात्र अपवाद है), जो बहुपक्षीय संस्थाओं में सुधार, व्यापार, आर्थिक सहयोग, जलवायु परिवर्तन और प्रौद्योगिकी पर समान विचारों पर पहुँचने का प्रयास करता है। इस प्रकार, ब्रिक्स में आईएमएफ, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं और व्यापार एवं वित्तीय तंत्रों पर जी-7 देशों और पश्चिमी साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को चुनौती देने की क्षमता है। ब्रिक्स का उदय 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट की पृष्ठभूमि में हुआ और जी-20 के जी-7 देशों की छाया से बाहर निकलने में विफल रहने के बाद यह और अधिक प्रासंगिक हो गया।

रियो डी जनेयरो घोषणापत्र ने हाल ही में हुई दो आक्रामक घटनाओं के संबंध में वैश्विक दक्षिण की स्थिति को स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित किया है। इसने ईरान की संप्रभुता और परमाणु स्थलों पर हमलों की निंदा की है, और इसने गाजा पर इज़राइल के नए हमलों और खाद्य एवं मानवीय आपूर्ति की नाकेबंदी की कड़ी निंदा की है। घोषणापत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम लिए बिना एकतरफा टैरिफ और गैर-टैरिफ उपायों में वृद्धि पर भी गंभीर चिंता व्यक्त की गई है। इसने आईएमएफ और विश्व बैंक में प्रमुख वैश्विक दक्षिण देशों के लिए अधिक मतदान शक्तियों और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ब्राजील और भारत के प्रतिनिधित्व की लंबे समय से चली आ रही मांग को भी दोहराया है।

राष्ट्रपति ट्रंप की नाराज़गी का कारण ब्रिक्स द्वारा डॉलर पर निर्भरता कम करने और बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों पर अमेरिका और जी-7 देशों की पकड़ ढीली करने के लिए उठाए जा रहे कदम और उपाय हैं। अमेरिका द्वारा विशिष्ट देशों के विरुद्ध आर्थिक और वित्तीय प्रतिबंधों का तेज़ी से उपयोग करने और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एवं बैंकिंग प्रणालियों से बाहर करने के साथ, अधिक से अधिक देश वैकल्पिक व्यवस्थाओं के माध्यम से अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं। ब्रिक्स सदस्यों ने स्थानीय मुद्राओं में व्यापार और मुद्रा विनिमय व्यवस्था पर चर्चा की है।

सीमा पार भुगतान के लिए कदम भी एजंडे में हैं। रियो घोषणापत्र में कहा गया है कि नेता अपने देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों को "ब्रिक्स सीमा पार भुगतान पहल पर चर्चा जारी रखने और ब्रिक्स भुगतान कार्य बल (बीपीटीएफ) द्वारा ब्रिक्स भुगतान प्रणालियों की बेहतर अंतर-संचालन क्षमता पर चर्चा जारी रखने के लिए संभावित रास्तों की पहचान करने में हुई प्रगति की सराहना" करने का काम सौंपेंगे। हालाँकि वैकल्पिक मुद्रा व्यवस्था का कोई विशिष्ट लक्ष्य नहीं है, लेकिन डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए उठाए गए सीमित कदम ट्रंप प्रशासन में चिंता का विषय बन रहे हैं।

ब्रिक्स कुछ वैकल्पिक संस्थाओं की स्थापना में क्रमिक प्रगति कर रहा है, यह न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) के उदाहरण से स्पष्ट है। इसकी स्थापना 2015 में 100 अरब डॉलर की पूंजी से हुई थी और इसका मुख्यालय शंघाई में है। यह बैंक ऋणों के भुगतान के लिए ऋण देने के बजाय बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए ऋण प्रदान करता है। बैंक ने अब तक ब्रिक्स सदस्य देशों और वैश्विक दक्षिण के अन्य देशों में 98 बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए 36 अरब डॉलर का ऋण दिया है। वर्तमान में इस बैंक की प्रमुख ब्राज़ील की पूर्व राष्ट्रपति डिल्मा रूसेफ हैं। एनडीबी के अलावा, आकस्मिक आरक्षित व्यवस्था (सीआरए) भी है, जिसमें ब्रिक्स केंद्रीय बैंकों के बीच से एक साझा कोष शामिल होता है। सीआरए मुद्रा संकट के दौरान सदस्य देश को सहायता प्रदान करता है।

वामपंथी आलोचक ब्रिक्स को महत्वहीन मानते हैं क्योंकि इसका कोई सुसंगत साम्राज्यवाद-विरोधी एजेंडा नहीं है। यह आलोचना अनुचित है। ध्यान रखना चाहिए कि ब्रिक्स एक साम्राज्यवाद-विरोधी मंच नहीं है। जहाँ तक इस मंच के वैश्विक रुख को स्पष्ट करने का सवाल है, दक्षिण के साथ सहयोग करने और वैश्विक दक्षिण की विकास आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने वाले साझा प्रयासों की शुरुआत करने से, यह बहुध्रुवीयता को मज़बूत करने के उद्देश्य की पूर्ति करेगा। जैसे-जैसे ब्रिक्स मंच अपनी पहुँच और एकजुटता, दोनों के स्तर पर विकसित होता जाएगा, यह अमेरिका के नेतृत्व वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था और विकासशील देशों के बीच मौजूद विरोधाभास की अभिव्यक्ति होगा। भारत सहित कई ब्रिक्स सदस्यों के संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ रणनीतिक और आर्थिक संबंध हैं। लेकिन, ये देश वस्तुतः एक बहुध्रुवीय विश्व में भी भागीदार हैं जो उनके राष्ट्रीय हितों की बेहतर पूर्ति करेगा। ऐसे देशों के लिए, ब्रिक्स में भागीदारी, अमेरिकी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ जुड़े रहते हुए भी, कुछ हद तक रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने के अधिक अवसर प्रदान करती है।

ट्रम्प के राष्ट्रपतित्व में व्यापार और अन्य सभी क्षेत्रों में एकतरफा आक्रामकता देखी जा रही है, जिसका वैश्विक दक्षिण के देशों पर बुरा असर पड़ रहा है। व्यापार युद्ध केनडा, यूरोपीय संघ, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे घनिष्ठ सहयोगियों को भी नहीं बख्श रहा है। जहाँ एक ओर यह अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी गठबंधन को कमज़ोर कर रहा है, वहीं दूसरी ओर वैश्विक दक्षिण के लिए एक प्रामाणिक मंच के रूप में ब्रिक्स की अपील बढ़ रही है। अधिक से अधिक देश ब्रिक्स में शामिल होने के इच्छुक हैं। रियो शिखर सम्मेलन में एक नई 'भागीदार देशों' की श्रेणी की शुरुआत की गई। आठ देशों - बेलारूस, बोलीविया, क्यूबा, कज़ाकिस्तान, मलेशिया, थाईलैंड, युगांडा और उज़्बेकिस्तान - को यह भागीदार दर्जा दिया गया है। इस नवाचार के साथ, वैश्विक दक्षिण के और भी देश इस मंच से जुड़ गए हैं।

ब्रिक्स की अध्यक्षता एक वर्ष के लिए है। ब्राज़ील 2025 तक इसकी अध्यक्षता करेगा। राष्ट्रपति लूला के नेतृत्व में, कुछ अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। समूह ने संयुक्त कार्रवाई के लिए एक नया ढाँचा पेश किया, जो संयुक्त राष्ट्र के आगामी जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, जिसे कोप-30 के नाम से जाना जाता है, से पहले समूह की समन्वित स्थिति को दर्शाता है। प्रौद्योगिकी के संदर्भ में, घोषणापत्र में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) शासन पर अधिक समावेशी वैश्विक चर्चाओं की वकालत की गई, जो वैश्विक दक्षिण की उन चिंताओं को प्रतिध्वनित करता है जिनका अक्सर इन बहसों में कम प्रतिनिधित्व होता है। एक अन्य परिणाम ब्रिक्स बहुपक्षीय गारंटी पहल का प्रस्ताव था, जिसका उद्देश्य जोखिम कम करने के लिए निवेश गारंटी प्रदान करके वैश्विक दक्षिण में बुनियादी ढाँचे और विकास निवेश को सुगम बनाना है।

2026 में भारत इसकी अध्यक्षता करेगा और मोदी ने इसका विषय "सहयोग और स्थिरता के लिए लचीलापन और नवाचार का निर्माण" घोषित किया है। वैश्विक दक्षिण की आवाज़ बनने के अपने तमाम दावों के बावजूद, मोदी सरकार की विदेश और रणनीतिक नीतियाँ आम तौर पर अमेरिका और इज़राइल के साथ संरेखित रही हैं। पाकिस्तान-केंद्रित दृष्टिकोण के आधार पर, सभी बहुपक्षीय संस्थानों में आतंकवाद को प्राथमिक एजंडा बनाने की उसकी वर्तमान व्यस्तता भी वैश्विक दक्षिण की समग्र चिंताओं के अनुरूप नहीं रही है। वह अमेरिका द्वारा प्रायोजित क्वाड में अपनी भूमिका को मज़बूत करने के लिए उत्सुक है। फिर भी, भारत ट्रम्पवाद की अनिश्चितताओं का शिकार हो रहा है। वह ट्रम्प की आक्रामक मांगों से चाहे जितना समझौता करने की कोशिश करे, ट्रम्प के कई प्रहारों का शिकार उसे ही होना पड़ेगा।

भारत सरकार का आधिकारिक रुख यह है कि वह बहुध्रुवीयता को बढ़ावा देना चाहती है। हाल के दिनों में भारत और चीन ने सीमा पर तनाव कम करने और आर्थिक एवं यात्रा संबंधों को बहाल करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए संयुक्त कदम उठाए हैं। इससे ब्रिक्स मंच के भीतर सुचारू सहयोग की बाधाएँ दूर होनी चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि मोदी सरकार ब्रिक्स नेतृत्व की स्थिति का उपयोग ऐसे एजंडे को आगे बढ़ाने के लिए करेगी जो वैश्विक दक्षिण के सामूहिक हितों को बढ़ावा देगा और वैकल्पिक नीतियों और तंत्रों को कमजोर करने के सभी प्रयासों को विफल करेगा। (संवाद)