यही तत्व पहले भी कई अंतरराष्ट्रीय त्रासदियों का कारण बन चुका है। बच्चों की मौत ने न केवल स्थानीय प्रशासन बल्कि पूरे राज्य के स्वास्थ्य विभाग की जवाबदेही पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। दवा निर्माता कंपनी के मालिक की गिरफ्तारी और एनएचआरसी द्वारा नोटिस जारी होना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि राज्य की दवा नियंत्रण प्रणाली कितनी कमजोर हो चुकी है। यह घटना एक तात्कालिक त्रासदी नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की विफलता का प्रतीक है जिसकी जड़ें पिछले एक दशक से अधिक समय से सड़ चुकी हैं।
यही वह बिंदु है जहाँ से हमें अतीत की ओर देखना चाहिए, जब डॉ. अजय खरे जैसे ईमानदार चिकित्सक और जनस्वास्थ्य के लिए आवाज़ उठाने वाले डॉक्टरों ने इस तंत्र के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया था। वर्ष 2013-14 में उन्होंने, मध्यप्रदेश मेडिकल ऑफिसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में, सरकारी अस्पतालों को सप्लाई की जा रही अमानक दवाओं की जांच की मांग की थी। उन्होंने जबलपुर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की थी।
यह याचिका उस समय की थी जब स्वास्थ्य विभाग में करोड़ों की दवाइयों की खरीद-फरोख्त में अनियमितताओं के आरोप उठ रहे थे। उन्होंने खुलकर कहा था कि सरकारी अस्पतालों तक पहुँचने वाली दवाएँ अक्सर अमानक होती हैं और विभागीय लॉबी इन पर पर्दा डाल देती है। उन्होंने इस मामले की स्वतंत्र जांच की मांग की थी ताकि यह स्पष्ट हो सके कि जनता के नाम पर खरीदी जाने वाली दवाइयों से कौन-कौन लाभान्वित हो रहा है। वे स्वास्थ्य व्यवस्था को नैतिकता और जन-हित के स्तर पर सुधारने के लिए प्रतिबद्ध थे। उनका विश्वास था कि जब तक स्वास्थ्य सेवाओं की आपूर्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं आएगी, तब तक किसी भी प्रकार का सुधार केवल कागज़ी रहेगा।
लेकिन उनके इस साहसिक रुख ने उन्हें स्वास्थ्य माफिया की आँखों का काँटा बना दिया था। उन्होंने जब अमानक दवाओं के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उन्हें धमकियाँ दी गईं और विभागीय स्तर पर भी दबाव बनाए गए। 2015 में उनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई, पर उनके साथ एक ऐसी आवाज़ भी चली गई जिसने सरकारी तंत्र में नैतिकता की संभावना बनाए रखी थी। छिंदवाड़ा की मौजूदा त्रासदी उसी तंत्र की परिणति है जिसकी जड़ों को पहले ही पहचान लिया गया था। तब भी सवाल वही थे कि सरकारी खरीद में पारदर्शिता कहाँ है, दवा की गुणवत्ता जाँचने वाली प्रयोगशालाएँ कितनी सक्रिय हैं, और जब कोई डॉक्टर या कर्मचारी अंदरूनी भ्रष्टाचार पर सवाल उठाता है तो उसकी सुरक्षा कौन करेगा?
आज जब बच्चों की मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया है, तो यह याद करना जरूरी है कि 2014 की उस पीआईएल में जिन खामियों को सूचीबद्ध किया गया था, वे अब भी जस की तस हैं। अगर तब उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से जवाब मांगा था और विभाग ने “आंतरिक जांच” का भरोसा दिया था, तो सवाल यह है कि दस साल बाद वही गलती दोहराने का अवसर क्यों मिला। यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि एक संस्थागत असफलता है, जहाँ नियामक एजेंसियाँ कागज़ी कार्यवाहियों में उलझी रहीं और दवा-उद्योग की लॉबी को खुली छूट मिलती रही।
मध्यप्रदेश का यह स्वास्थ्य-संकट हमें बताता है कि भ्रष्टाचार अब सिर्फ आर्थिक अपराध नहीं रहा, यह जन-हत्या का रूप ले चुका है। जब दवा में जहर घुला हो, तो उस एक दवा की गोली या बोतल के पीछे एक पूरी श्रृंखला छिपी होती है। इस व्यवस्था की गहराई में भ्रष्टाचार एक परतदार तंत्र बन चुका है, जहाँ जवाबदेही का कोई सिरा नहीं मिलता। पूर्व चेतावनियाँ स्पष्ट करती थीं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में पारदर्शिता की कमी केवल आर्थिक हानि नहीं लाएगी, यह आम लोगों के जीवन पर सीधा आघात करेगी। आज जब छिंदवाड़ा की घटना सामने आई है, तो वे चेतावनियाँ भविष्यवाणी जैसी लगती हैं।
इस बीच, राज्य स्तर पर ड्रग कंट्रोल ऑफिस, मेडिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड और स्वास्थ्य विभाग के बीच समन्वय की कमी और भी उजागर हुई है। कई बार दवा-नमूने लैब में भेजे ही नहीं जाते या रिपोर्ट महीनों तक दबा दी जाती है। कई दवा-निर्माताओं पर कार्रवाई का कोई परिणाम नहीं निकलता क्योंकि वे राजनीतिक संरक्षण पाते हैं। ऐसे में डॉक्टरों और जन-स्वास्थ्यकर्मियों के संगठन जब आवाज़ उठाते हैं, तो उन्हें “विरोधी तत्व” कहकर दरकिनार कर दिया जाता है।
छिंदवाड़ा कांड के बाद अब फिर वही दौर शुरू हुआ है—जांच कमेटियाँ बनेंगी, कुछ अधिकारियों के तबादले होंगे, कंपनी का लाइसेंस रद्द होगा और फिर धीरे-धीरे मामला ठंडा पड़ जाएगा। लेकिन सच्चा सुधार तभी आएगा जब यह स्वीकार किया जाए कि स्वास्थ्य प्रणाली की नींव में ही गड़बड़ी है और उसे भीतर से साफ़ करने की जरूरत है। यह दुखद विडंबना है कि मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में, जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच पहले से ही सीमित है, वहीं इस तरह की घटनाएँ गरीब और वंचित तबकों के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। जो लोग सरकारी अस्पतालों पर निर्भर हैं, वही सबसे ज़्यादा जोखिम में हैं। हमें यह समझना होगा कि स्वास्थ्य सेवा कोई दया-भाव नहीं बल्कि नागरिक अधिकार है। छिंदवाड़ा की घटना को एक दुर्घटना की तरह भूल जाना आसान होगा, पर अगर समाज और सरकार ने इससे सीख नहीं ली, तो अगली बार यह आंकड़ा और बड़ा होगा।
इस पूरे परिदृश्य को देखा जाए, तो एक दशक पहले उठाई गई समस्याएँ अब भी कायम हैं। यह केवल व्यक्तियों की नहीं, बल्कि नीति-निर्माण की विफलता है। अब जरूरत केवल दोष तय करने की नहीं, बल्कि उस प्रणाली को पुनर्गठित करने की है, जिसमें दवा निर्माण, आपूर्ति, जाँच और शिकायत — सभी एक ही पारदर्शी डिजिटल ढाँचे में जुड़े हों। यह समय स्वास्थ्य-शासन की जवाबदेही को कानूनी और तकनीकी दोनों स्तरों पर मजबूत करने का है, ताकि भविष्य में कोई भी त्रासदी नीति-लापरवाही की कीमत पर न दोहराई जाए। एक ईमानदार स्वास्थ्य व्यवस्था का सपना आज भी अधूरा है, और छिंदवाड़ा की मासूम जिंदगियाँ उसी अधूरे सपने की कीमत चुका चुकी हैं। (संवाद)
अमानक दवाओं से मौतः नीति-विफलता की दर्दनाक कीमत
छिंदवाड़ा से सबक: स्वास्थ्य-शासन में जवाबदेही कब?
राजु कुमार - 2025-10-31 11:43
छिंदवाड़ा के कफ सिरप कांड ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य तंत्र में दवाओं की गुणवत्ता और सप्लाई-चेन को लेकर आज भी गहरी खामियाँ मौजूद हैं। इस हादसे में दर्जनों बच्चों की जान चली गई, और जांच में यह पाया गया कि जिन कफ सिरप की खुराक दी गई थी, उनमें डाइ-एथिलीन ग्लाइकॉल जैसी जहरीली रासायनिक मिलावट थी।