जब नाटो को लगा कि कुछ ही दिनों में लीबिया का असंतोष पूरी तरह दब जाएगा और गद्दाफी की सत्ता पूरी तरह स्थापित हो जाएगी, तो उसने लीबिया पर हवाई हमले भी शुरू कर दिए। हमले करने के पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक प्रस्ताव भी हासिल कर लिया, जिसके तहत लीबिया को नो फ्लाई जोन घोषित कर दिया गया था। आश्चर्य है कि इस प्रस्ताव को रूस और चीन ने वीटो नहीं किया। भारत ने भी इसका समर्थन नहीं किया, लेकिन उसने इसका विरोध भी नहीं किया। भारत के विरोध करने से कोई फर्क भी नहीं पड़ता, क्योकि तब भी बहुमत प्रस्ताव के पक्ष में ही जाता। पर रूस या चीन में से किसी एक के विरोध के बाद वह प्रस्ताव ही गिर जाता। आज ये दोनों देश लीबिया में नाटों की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं, लेकिन जब इस तरह की कार्रवाई की संभावना को पैदा होने से रोकने का वक्त था, तब ये दोनों देश खामोश थे। जाहिर है कि रूस और चीन ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल नहीं कर नाटो की दया पर लीबिया को छोड़ दिया है और अब वहां उनकी कार्रवाई के विरोध में बयानबाजी कर रहे हैं।
नाटो का गठन अमेरिका और सोवियत संध के बीच चल रहे शीतयुद्ध के दौरान किया गया था। अब सोवियत संघ नहीं रहा। उसकी समाप्ति के साथ ही शीतयुद्ध भी समाप्त हो गया है और उसके साथ ही नाटो की प्रासंगिकता भी। उसके बावजूद शीतयुद्ध के काल का यह संगठन बना हुआ है। इसके प्रावधानों में एक प्रावधान है कि यदि इसके किसी सदस्य देश पर कोई हमला होता है, तो उसे सभी सदस्य देशों पर हमला माना जाएगा और सभी मिलकर उसका सामना करेंगे। लीबिया के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। किसी ने उस पर हमला नहीं किया था। उसके बावजूद नाटो ने उसके खिलाफ हमलावर रुख अपना रखा है। अफगानिस्तान में हमला 9 सितंबर को अमेरिकी ठावरों पर हुए हमले के आधार पर किया गया। उसे अमेरिका पर हमला माना गया और नाटो की अफगानी कार्रवाई को उचित करार दिया गया। इराक पर अमेरिकी हमला एक झूठ के आधार पर हुआ और वह झूठ यह था कि उस देश के पास मारक रसायनिक हथियार है, जिससे विश्व समुदाय को खतरा है। लेकिन लीबिया पर हमला के लिए न तो अफगानिस्तान जैसा कोई बहाना था और न ही इराक जैसा कोई गढ़ा हुआ झूठा आधार। वहां नाटों के अधिकांश देशों ने किसी प्रकार के हस्तक्षेप का विरोध ही किया। अभी भी करीब दो तिहाई नाटो देश इराक के खिलाफ कार्रवाई में शामिल नहीं हैं। जर्मनी का लीबिया में की जा रही कार्रवाई पर सख्त एतराज है। अमेरिका भी वहां झिझक के साथ ही शामिल हुआ। ब्रिटेन और फ्रांस लीबिया को लेकर कुछ ज्यादा ही उन्माद ही दिखा रहे थे। उन दोनो देशों ने अमेरिका प्रशासन पर लगातार दबाव बनाया।
अमेरिका की झिझक के पीछे उसकी अपनी आर्थिक समस्या है। वहां भी गद्दाफी विरोधियों की संख्या काफी है और वे उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई चाहते हैं। लेकिन अफगानिस्तान और इराक अमेरिका के लिए पहले से ही महंगा साबित हो रहे हैं। उसकी वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि लीबिया में एक और मोर्चा खोलकर उसका खर्च वहन कर सकें। इसके कारण अमेरिका का एक वर्ग लीबिया में किसी प्रकार के अमेरिकी दखल कि खिलाफ था। पर अंत में युद्धोन्मादियों की ही जीत हुई। ब्रिटेन और फ्रांस अमेरिका को लीबिया में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य करने मे ंसफल हुए। नाटो के सदस्य देश हस्तक्षेप के खिलाफ थे। इसलिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का सहारा लिया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो अपने देश की कांग्रेस से अनुमति लेने की जरूरत भी नहीं समझी और लीबिया पर हुए हमले में खुद को शामिल कर लिया और कुछ दिनों के बाद अपने देश की संलिप्तता को कम करने लगे। हवाई हमले से अमेरिका ने अपने आपको अलग कर लिया और वहां के आपरेशन का जिम्मा ब्रिटेन और फ्रांस को दे दिया।
लीबियाई नेता कर्नल गद्दाफी बार बार कहते रहे कि उनके खिलाफ असंतोष के पीछे अल कायदा से संबंध रखने वाली कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें हैं। गौर तलब है कि लीबिया एक इस्लामी देश है, लेकिन वहां इस्लामी कट्टरवाद पर गद्दाफी ने नियंत्रण कर रखा है, जिसके कारण वे ताकतें जब तब सिर उठाती रहती हैं। अनेक इस्लामी आंतंकवादियों को तो उन्होंने जेल में भी बंद कर रखा था। अमेरिका व अन्य नाटो देश अल कायदा के खिलाफ हैं, लेकिन लीबिया में वे उनके साथ खड़े हैं। आखिर क्यों? इसका कोई माकूल जवाब अमेरिकी प्रशासकों के पास नहीं है। लीबियाई असंतोष के पीछे अल कायदा का हाथ नहीं है, इस बात को अमेरिका व अन्य नाटो देश पूरी तरह नकार भी नहीं रहे हैं। कद्दाफी प्रशासन यह साबित भी कर दिया है कि अल कायदा से जुड़े लोग असंतुष्टों का नेतृत्व कर रहे हैं। अमेरिका के खिलाफ अफगानिस्तान में विद्रोह के नेता को भी लीबिया सरकार ने अपने देश के विद्रोहियों का नेतृत्व करते गिरफ्तार किया। उससे ज्यादा क्या सबूत अमेरिका को अल कायदा से सबंधित दावे की पुष्टि में चाहिए?
विद्रोहियों को हवाई हमले से सहयता करने के बावजूद नाटो लीबियाई नेता गद्दाफी को सत्ता से बाहर करने मे सफल नहीं हुआ है। यदि वह लीबिया पर हमला नहीं करता, तो अबतक कद्दाफी का पूरे लीबिया पर नियंत्रण हो जाता। इसलिए नाटो का योगदान मात्र यही रहा है कि उसके कारण वहां का सिविल वार अभी तक चल रहा है। नाटो अधोषित रूप से भी लीबियाई विद्राहियों की सहायता कर रहा है। उन्हें हथियार बगैरह भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उनके प्रशिक्षण का भी इंतजाम किया जा रहा है। इसके बावजूद बिद्रोही सफल नहीं हो रहे हैं। ब्रिटेन और फ्रांस सैनिक सलाहकार घोषित रूप से विद्रोहियों की सहायता के लिए भेज चुके हैं। अमेरिका ने विद्रोहियों को आर्थिक सहायता देने की घोषणा भी कर दी है। यानी एक संप्रभुता संपन्न देश की सरकार को अपनी इच्छा के अनुसार बदलने की सारी कोशिशें वहां की जा रही है। नागरिको की रक्षा के नाम पर नाटो की सेना वहां नागरिकों का ही कत्ल कर रही है। लीबिया को तो बर्बाद किया ही जा रहा है, लेकिन नाटों के लिए भी वहां का आपरेशन महंगा पड़ रहा है। लीबिया नाटों के बिखराव का कारण भी बन सकता है, क्योंकि उसके अधिकांश देश इस आपरेशन के सख्त खिलाफ हैं। (संवाद)
लीबिया में नाटो की कार्रवाई
सैन्य गठबंधन को महंगा पड़ रहा है हस्तक्षेप
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-05-01 09:00
लीबिया को लेकर अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का रवैया शुरू से ही आपत्तिजनक रहा है। वहां गद्दाफी के खिलाफ असंतोष भड़कने के साथ ही ब्रिटेन और फ्रांस ने अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया। अपने प्रचार तंत्र का इस्तेमाल कर ऐसा माहौल खड़ा करना शुरू कर दिया, जिससे लग रहा था कि वहां कर्नल गद्दाफी के दिन लद गए हैं। ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि गद्दाफी अपना देश छोड़कर भाग चुके हैं। जाहिर है, इस तरह का दुष्प्रचार विद्रोह को बढ़ावा देने के लिए किया गया और उसमें वे सफल भी रहे, लेकिन असंतोष के बावजूद गद्दाफी अपने किले में मजबूत बने रहे और धीरे धीरे अपनी मजबूती बढ़ाते भी रहे।