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अचिन्त्यभेदाभेदवाद चैतन्नय महाप्रभु द्वारा प्रतिपादित वह मत है जिसके तहत 'ईश्वर तथा जीव ही नहीं बल्कि ईश्वर और जगत का भेदाभेद सम्बंध है। यदि ईश्वर शक्तिमान है तो जीव-जगत् उनकी शक्ति' के भेदाभेद सम्बंध को तर्क के आधार पर असंगत तथा व्याघातक पाते हुए भी चूंकि ईश्वरभूत शक्तिमान और जीव-जगत भूत शक्ति दोनों अस्तित्व में है, इसलिए उनमें व्याघात नहीं होने का प्रमाण है।
अचिन्त्यभेदाभेदवाद को गौड़ीय वैष्णव मत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि उसमें हरि को ही परमतत्व माना गया है। इस परिकल्पना का उद्भव और प्रचलन भी गौड़ देश (बंग) में हुआ इसलिए इसे गौड़ीय कहा गया।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में जीव गोस्वामी ने भागवत की टीका लिखी और 'षट्-संदर्भ' भी लिखा। यही ग्रंथ अचिन्त्यभेदाभेदवाद का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। बलदेव विद्याभूषण रचित ब्रह्मसूत्र के गोविन्द भाष्य को भी इसका प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
भारतीय दर्शन की इस पद्धति में हरि परमतत्व या चरम सत् हैं, वही ईश्वर हैं, उनकी अंगकांति निर्विशेष ब्रह्म है, उनका एक अंश मात्र भी परमात्मा है, वहीं संसार में अन्तर्यामी है। हरि अंशी और परमात्मा उनका अंश। इस मत में हरि षड् ऐश्वर्यों - पूर्ण श्री, पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण ज्ञान तथा पूर्ण वैराग्य - की एकता हैं। इनमें श्रीगुण केन्द्र में है तथा अन्य उसके अंगभूत। वह राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति हैं और दोनों प्रेम तथा भक्ति के अपरिहार्य बंधन से बंधे हैं। हरि आध्यात्मिक हैं, एकत्र और सर्वत्र, पूर्ण सत्व, रज और तम से परे, अनन्त और सीमित, सबकुछ। यही तो अचिन्त्य शक्ति का लक्षण है। इसलिए हरि मूर्त भी हैं तथा विभु भी।
स्वरुप शक्ति, तटस्थ शक्ति तथा माया शक्ति तीन प्रमुख अचिन्त्य शक्तियां हैं। इन तीनों शक्तियों को पराशक्ति कहा जाता है।
इस मत के अनुसार जगत् सत् है जो भगवान की माया शक्ति का परिणाम है। इसे ही आगे विकारों को हटाकर शक्ति-परिणामवाद कहा गया और तब जगत् को भगवान की शक्ति का परिणाम माना गया।
इस मत के अनुसार माया शक्ति के कारण जीवों में अविद्या रहती है तथा इसी अविद्या के कारण जीव हरि से अपने वास्तविक सम्बंध को भूल जाता है। भक्ति द्वारा यह स्मरण हो जाता है तथा जीव मुक्त हो जाता है। यह भक्ति भगवद् रुपिणी है। भगवान के दो रुपों में ऐश्वर्य रुप की प्राप्ति ज्ञान से होती है तथा माधुर्य रुप की प्राप्ति भक्ति से। माधुर्य रुप में सखा, वात्सल्य, दास्य, दाम्पत्य आदि भाव से भगवान की भक्ति की जाती है और उन्हें प्राप्त किया जाता है।
भक्ति रस का पान करते हुए अन्त में भक्त मुक्त हो जाता है।


Page last modified on Friday December 14, 2012 18:20:56 GMT-0000