अद्वैतवाद
अद्वैत का सामान्य अर्थ है - 'वह दो नहीं है'। यहां 'वह' शब्द बहुधा ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता है जो एक तथा केवल एक ही है, ऐसा अधिकांश लोगों की समझ है। परन्तु दर्शन शास्त्र में अद्वैतवाद का केवल यही अर्थ नहीं है। कई स्थानों पर अद्वैतवाद आत्मा तथा परमात्मा के दो न होकर एक ही होने का अर्थ देता है। परन्तु इसे कई स्थानों पर एकेश्वरवाद से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि अद्वैतवाद के अनेक आयाम हैं तथा इसे कई अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है।दर्शन में सत् की खोज के परिणाम स्वरुप निकले अनेक वादों में अद्वैतवाद एक है। अद्वैतवादी सत् को न तो एक मानते हैं और न ही अनेक। उनके द्वारा सत् को अगम, अगोचर, अचिन्त्य आदि मान जाता है। फिर भी उन्हें अद्वैतवादी इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे द्वैतवाद का खंडन करते हुए उसके विरुद्ध खड़े होते हैं। द्वैतवाद का खंडन करते हुए वे कहते हैं कि सत् दो नहीं है। इसी कारण अनेक विद्वान उन्हें एकेश्वरवादी या एकत्ववादी के रुप में भी उद्धृत करते हैं जो, कम से कम दर्शनशास्त्र के अनुसार सही नहीं है। यह अलग बात है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एकत्ववाद या एकेश्वरवाद को अद्वैतवाद का जनक माना जा सकता है, या इसे समीपवर्ती कहा जा सकता है। अद्वैत सत् एक दो आदि संख्या में नहीं है क्यों उस सत् का वर्णन नेति-नेति, बस उसका अस्तित्व है जैसी अभिव्यक्ति से किया जाता है।
इस अद्वैत सत् को शून्यवादी शून्य, विज्ञानवादी विज्ञान, शब्दवादी शब्द, शिववादी शिव, शक्तिवादी शक्ति, तथा अद्वैत वेदान्ती आत्मा, तथा परमेश्वरवादी परमेश्वर मानते हैं।
अनेक संत वैसे भी हैं जो इस अद्वैत सत् को सत्य मानते हैं, कुछ कहते हैं कि यह नाम है, तो कुछ इसे हरि या भगवान विष्णु या ब्रह्म मानते हैं।
यूरोप के दार्शनिक भी पीछे नहीं। शेलिंग इसे अनात्म प्रकृति मानते हैं जबकि फिश्टे इसे आत्मा ही कहते हैं। हेगल के अनुसार यह निरपेक्ष प्रत्यय है, ब्रैडले के अनुसार यह अपरोक्षानुभूति है। ग्रीन इसे अपरिछिन्न चैतन्य कहते हैं।
शंकर इन सबसे अलग विचार रखते हैं। उनके अनुसार साक्षात् अनुभूत होनेवाली चैतन्यस्वरुप आत्मा ही तत्व है, न कि कोई भाव या अभाव। उनके अनुसार यही परमतत्व है।
इस धारणा का विस्तार माया तक है जिसकी सत्ता भी इसी सत् या परमतत्व में माली जाती है। इस प्रकार माया और ब्रह्म के भी दो होने का खंडन इस अद्वैतवाद में किया गया है।
शंकराचार्य (788-820ई) के बाद से बहुधा इसी आत्म सत् अथवा परमात्म तत्व के अद्वैत होने की धारणा को ही अद्वैतवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। उनके द्वारा स्थापित बदरिकाश्रम, द्वारकापुरी, तथा श्रृंगेरी में स्थापित मठ इसी अद्वैतवाद का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
परन्तु अद्वैतवाद एक प्राचीन दर्शन है जिसके उल्लेख ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है।
उपनिषदों ने इसे पूरी तरह स्थापित कर दिया। छान्दोग्य उपनिषद् में इसी एक तथा अद्वितीय सत् को ही समस्त प्रपंच या माया का मूल माना गया। इसी एक सत् को आत्मा से अभिन्न तत् त्वं असि कहा गया। वृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा का ज्ञान नेति-नेति के सिद्धान्त से किया गया तथा कहा गया कि यह अनेक नहीं है। इसी आत्मा में समाहित हो जाने को मोक्ष माना गया। माण्डूक्य उपनिषद् में इसी आत्मा को ब्रह्म कहा गया।
सूत्रकाल में अर्थात् ईसा पूर्व 400 से ईसा पूर्व 200 ईस्वी के बीच उपनिषदों के इस सारतत्व को ब्रह्मसूत्र के रूप में लिखा गया। इस सम्बंध में बादरायण अर्थात् व्यास का ब्रह्मसूत्र उद्धरणीय है। इतना ही नहीं, व्यासरचित महाभारत का अंश श्रीमद्भगवद् गीता इसका सार है। स्मृतियों में इसी सिद्धान्त की विवेचना हुई है।