अध्यात्म में कला
अध्यात्म में कला एक कंचुक है। यह माया के पांच कंचुकों में से एक है।कला ब्रह्म के छह परिग्रहों में से दूसरा परिग्रह है।
कला ईश्वर या देवता की कलाशक्ति या विभूति का व्यक्त रूप है। ये कलाएं सोलह मानी जाती हैं। किसी भी अवतार में यदि सभी कलाएं हों तो उसे पूर्णकला मूर्ति कहते हैं। केवल एक कला हो तो कलामूर्ति तथा एक से अधिक हो तो उसकी संख्या कही जाती है, जैसे भीष्म पितामह ने अर्जुन से कहा कि कृष्ण में चार कलाएं मानो। यदि किसी एक कला का थोड़ा अंश है तो अंशमूर्ति या अंशांशमूर्ति कहा जाता है।
भगवान शिव के सन्दर्भ में कहा जाता है कि वे सकल, अर्थात् कलायुक्त हैं, और निष्कल, अर्थात् कलाहीन भी हैं। निष्कल को निर्गुण कहा जाता है तथा सकल को सगुण। इस प्रकार शैवमत में सकलशिव की अवधारणा है, अर्थात् सकलशिव शक्तिस्वरूप हैं। शक्ति और शिव में कोई भेद नहीं। शक्ति और शिव तो एक ही हैं। बस अन्तर इतना भर है कि शिव धर्मी हैं तथा शक्ति शिव का धर्म। इस प्रकार धर्म और धर्मी अलग-अलग कैसे रह सकते हैं! नाथपंथ के एक महान योगी मत्स्येन्द्रनाथ कहते हैं कि शक्ति के बिना शिव नहीं रहते और शिव के बिना शक्ति नहीं रह सकती। शक्तिहीन शिव शव हैं, निर्गुण हैं, निष्कल हैं। निष्कल शिव कलाहीन हैं, शक्ति कलावती है।
योगियों में दो साधनाएं प्रचलित हैं - उन्मनी और समनी। उन्मनी शिवतत्व में अवस्थित होने के कारण उसमें कलाएं नहीं मानी जातीं। समनी शक्ति तत्व में अवस्थित होने के कारण उसमें कलाएं मानी जाती हैं।
समनी साधना में सात कलाएं मानी जाती हैं जैसा कि नेत्रतन्त्र में बताया गया है।
षट्चक्र निरुपण में एक विलीनशक्ति नामक शक्ति का उल्लेख मिलता है। इस विलीनशक्ति की दो कलाएं हैं - निर्वाण कला तथा अमाकला। निर्वाणकला को अमृताकारा तथा अमाकला को अमृतकला भी कहा जाता है। सत्रहवीं कला के रूप में इन दोनों को शामिल किया गया है।
जैसी की मान्यता है, उन्मनी शिवपद है - कलातीत और कालातीत। इसलिए निर्वाणकला तथा अमाकला दोनों ही शक्तितत्व से ही उद्भुत हैं। शक्तितत्व में समनी ही सर्वोच्च शक्ति है। परशिव और परशक्ति के सम्मिलन से जो अमृत क्षरित होता है उसे ग्रहण करने वाली तो समनी ही है।
अमाकला या अमा को सृष्टि उन्मुख बताया गया है। इसे ऊर्ध्वशक्तिरूपा भी माना गया है।
सोलहवीं कला को कारयित्रि शक्ति और सत्रहवीं को चिन्मात्रस्वभावा कहा गया है।
मुण्डकोपनिषद् में तीन पुरुष बताये गये हैं और तीनों की पांच-पांच कलाएं कही गयी हैं। इस प्रकार मुण्डकोपनिषद् में कुल 15 कलाओं का उल्लेख है। परन्तु परात्पर में लीन हो जाने पर सोलहवीं ईश्वराम्नाय नामक कला की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार मुण्डकोपनिषद् में कुल सोलह कलाएं बतायी गयी हैं।