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कन्नड़ साहित्य

कन्नड़ भाषा में लिखे गये साहित्य को कन्नड़ साहित्य कहते हैं। कन्नड़ साहित्य का इतिहास नौवीं शताब्दी के कविराजमार्ग नामक ग्रंथ से प्रारम्भ होता है। इसके पूर्व का कन्नड़ साहित्य उपलब्ध नहीं है।

कन्नड़ साहित्य के काल विभाजन के संदर्भ में यद्यपि कन्नड़ के विद्वानों में मतभेद हैं, प्रो आर एस मुगलि द्वारा किया गया काल विभाजन सर्वाधिक मान्य काल विभाजन माना जाता है। उनके अनुसार पांच युग ये हैं - पम्पपूर्वयुग (950 से पूर्व), पम्पयुग (950-1150), बसवयुग (1150-1500), कुमारव्यास युग (1500-1900) तथा आधुनिक युग (1900 के बाद)।

पम्पपूर्व युग का प्रारम्भ कविराजमार्ग नामक ग्रंथ से माना जा सकता है जिसका रचनाकाल 815 से 877 के बीच का माना जाता है। पारम्परिक रुप से मान्यखेट के राष्ट्रकूट चक्रवर्ती राजा नृपतुंग इसके रचयिता माने जाते हैं परन्तु आधुनिक विद्वानों ने इसपर संदेह व्यक्त किया है। स्वयं प्रो मुगलि का अनुमान है कि इसके रचयिता नृपतुंग के दरबारी कवि श्रीविजय थे। यह एक रीतिकाव्य ग्रंथ है। उसके बाद वड्डाराधने नामक ग्रंथ गद्य में मिलता है जिसमें 19 जैन महापुरुषों की कहानियां है। इसकी रचना कब और किसने की इसपर भी मतभेद हैं, परन्तु आम धारणा है कि शिवकोट्याचार्य नामक किसी जैन कवि ने इसे 900 से 1070 के बीच लिखा था। इनके अलावा अन्य कवियों के उल्लेख तो मिलते हैं परन्तु पम्पपूर्व युग का कोई अन्य ग्रंथ अबतक उपलब्ध नहीं हो सका है।

उसके बाद कन्नड़ साहित्य का स्वर्णयुग आया जिसे पम्पयुग कहा जाता है। इस काल को जैन युग भी कहा जाता है। जैन कवियों ने धार्मिक काव्य भी रचे और लौकिक काव्य भी। धार्मिक काव्यों में तीर्थंकर या जैन महापुरुष से जुड़ी कविताएं होती थीं और लौकिक काव्य में जैन धर्म से बाहर के विषय विशेषकर वैदिक या पौराणिक या संस्कृत के अन्य महाकाव्यों के पात्र आदि होते थे। लौकिक काव्य के माध्यम से वे लोगों को जैन धर्म की ओर आकर्षिक करने का ही प्रयत्न करते थे। उनके धार्मिक काव्यों में अद्भुत तथा शान्त रस, एवं लौकिक काव्यों में वीर तथा रौद्र रस प्रमुखता से अभिव्यक्त हुए। इसी युग में कन्नड़ तथा संस्कृत की भाषा शैलियों में समन्वय हुआ। चम्पू काव्य शैली काफी लोकप्रिय हुआ। व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष, भाषा कोश आदि अन्य विषयों पर भी लेखन हुआ। इस युग के तीन प्रमुख कवि थे - पम्प, पोन्न तथा रन्न। इन्हें रत्नत्रयी माना जाता है। महाकवि पम्प के आदिपुराण और विक्रमार्जुन विजय (जिसे पम्प भारत भी कहा जाता है) नामक चम्पू महाकाव्य प्रसिद्ध हैं। पोन्न के तीन विख्यात ग्रंथ हैं - शान्तिपुराण, जिनाक्षरमाला तथा भुवनैकरामाभ्युदय (अनुपल्बध)। रन्न के दो विख्यात ग्रंथ हैं - अजिनपुराण तथा साहस भीम विजय (इसे गदायुद्ध भी कहा जाता है)। पम्प युग के अन्य विख्यात कवि हैं - चाउण्डराय, नागवर्म प्रथम, दुर्ग सिंह, चन्द्रराज, नागचन्द्र (जिन्हें अभिनव पम्प भी कहा जाता है), नागवर्म द्वितीय, श्रीधराचार्य आदि। सबसे प्रचीन कन्नड़ रामकथा नागचन्द्र के पम्परामायण में मिलती है।

उसके बाद बसवयुग का प्ररम्भ 1150 से हुआ। इसे क्रान्तियुग भी कहते हैं, जो 1500 तक रहा। कर्नाटक में राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसका प्रथम नेतृत्व बसव ने किया था। इसी कारण इस युग का नाम बसव युग पड़ा। बसव को बसवण्ण या बसवेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। बोलचाल की कन्नड़ पहली बार साहित्य में आयी। इससे साहित्य जनता के बीच पहली बार आया। उसके पूर्व कन्नड़ साहित्य तो केवल पंडितों के समझने योग्य ही था। गैर जैन कवि और साहित्यकार भी बड़ी संख्या में आये। भिन्न मतों के साहित्य सामने आये परन्तु भक्ति ही मुख्य विषय रहा। शैवमत तथा वैष्णव मतों के साहित्यकार और संतों की रचनाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। सत्ता द्वारा जैन धर्म को प्रश्रय देना बंद किये जाने के कारण कर्नाटक के साहित्य में जैन रचनाकारों का दबदबा कम हुआ तथा वीरशैव मतावलंबियों का दबदबा कायम हुआ।

सन् 1500 से कुमारव्यास युग का प्रारम्भ हुआ जो 1900 तक चला। विजयनगर तथा मैसूर के राजाओं ने कन्नड़ साहित्य के विकास में भारी योगदान किया। वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ी तथा यह साहित्य में एक प्रेरक तत्व बन गया जिससे वैष्णव रचनाकारों का प्रभुत्व बढ़ गया। साहित्य जनता के और निकट आ गया। इस काल के विख्यात कवि हैं नार्णप्प या नारणप्प। इन्हीं को कुमार व्यास कहा गया और इन्हीं के नाम पर इस युग का नाम पड़ा। वे भागवत सम्प्रदाय के प्रमुख कवि थे। माना जाता है कि वे पन्द्रहवीं शताबादी में जीवित थे। उन्होंने महाभारत का कन्नड़ रुपान्तरण किया जिसे कन्नड़ भारत कहा जाता है। नरहरि या कुमारवाल्मीकि ने तोरवेरामायण की रचना की। भागवत मत के अन्य प्रमुख कवि थे - तिम्मण्ण, चाटुबिट्ठलनाथ, लक्ष्मीश, तथा नागरस। कन्नड़ में भक्ति गीत, भजन, कीर्तन आदि कर्नाटक में घर-घर पहुंच गये जिसमें माध्वमतावलम्बियों का बड़ा योगदान था।

भक्तों की परम्परा में विभाजन तेरहवीं शताब्दी में ही हो गया था, परन्तु कुमारव्यास युग में दोनों उपसम्प्रदाय अलग-अलग रास्ते पर चल पड़े थे। इन दोनों का नाम था व्यासकूट तथा दासकूट। दोनों में वैसे तात्विक दृष्टिकोण के कोई खास अन्तर नहीं था परन्तु सामाजिक स्थर पर वे विभाजित ही थे। व्यासकूट खेमे में अधिकांश ब्राह्मण थे तथा वे संस्कृत में ही अपने विचार अभिव्यक्त करने पर बल देते थे। दासकूट में अधिकांश गैर-ब्राह्मण थे जो कन्नड़ में अभिव्यक्ति के ही पक्षधर थे। इन दोनों को कर्नाटक में हरिदास ही कहा जाता था। इन हरिदासों ने अनेकानेक विषयों पर लिखकर कन्नड़ साहित्य का भंडार बढ़ाया। हरिदासों का युग तेरहवीं से अट्ठारहवीं शताब्दी तक रहा जिसमें कन्नड़ के अतिरिक्त संस्कृत साहित्य पर भी बड़ा काम हुआ।

सत्रहवीं शताब्दी में मैसूर के राजा चिक्कदेवराय ने भी बड़ा योगदान किया। उनके आश्रय में तिरुमलार्य, चिकुपाध्याय, सिंगरार्य, होन्नम्मा, हेलवन कट्टे गिरियम्मा, महा लिंगरंग आदि विख्यात वैष्णव कवि हुए। इस प्रकार कन्नड़ साहित्य पर श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का प्रभाव पहली बार पड़ा। वीरशैव मतावलंबियों का भी योगदान कम नहीं रहा। वचन-शैली में भी अनेक ग्रंथ लिखे गये। वीरशैव मतावलंबियों में विख्यात रचनाकार हुए – चामरस, विरुपाक्ष पंडित, और षडक्षरदेव।

इस युग में एक महान वीरशैव सन्त हुए जिनका वास्तविक नाम अज्ञात है परन्तु उन्हें सर्वज्ञ के उपनाम से जाना जाता है। इन्होंने त्रिपदी नामक छन्द में अपनी अमरवाणी सुनायी थी। इसका प्रत्येक छन्द सर्वज्ञ शब्द के साथ समाप्त होता है तथा हिन्दी के दोहे की तरह अर्थ में प्रत्येक त्रिपदी परिपूर्ण है।

जैन मतावलम्बी प्रमुख रचनाकार रहे - रत्नाकरवर्णि, भास्कर, तेरकणांबि बोम्मरस शिशुमायण, मंगरस तृतीय, साल्व आदि।

उन्नीसवीं शताब्दी में विख्यात कवि हुए – देवचन्द्र, केम्पुनारायण, करिवसवप्प शास्त्री आदि। देवचन्द्र ने जैन रामायण परम्परा को आगे बढ़ाया। कन्नड़ में नाटक इसी काल में लिखे जाने लगे। मुद्दण का अद्भुत रामायण भी इसी युग की विख्यात रचना है।

कन्नड़ साहित्य का आधुनिक युग 1900 से प्रारम्भ होता है। अंग्रजी शासन का इसपर काफी प्रभाव पड़ा तथा स्वतंत्रता आन्दोलन का भी। 1901 से 1920, 1921 से 1940, तथा 1941 से अब तक के कन्नड़ साहित्य के अलग-अलग रुझान हैं। आधुनिक कन्नड़ साहित्य का स्वर्णयुग 1921 से 1940 तक की अवधि को माना जाता है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना, जीवनी, यात्रावृतान्त आदि अनेकानेक विधाओं का विकास इसी अवधि में हुआ। स्वतंत्रता के पहले राष्ट्रवाद की झलक भी मिलती है। स्वतंत्रता के बाद इसमें प्रगतिवादी विचारधारा का समावेश हुआ। यथार्थवाद तथा परम्पागत आदर्श के बीच संघर्षों का चित्रण आज के कन्नड़ साहित्य में तो हो ही रहा है, अत्याधुनिकतावाद तथा उत्तरआधुनिकतावाद भी इसमें दिखायी दे रहे हैं।

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