जनवाद
कला, साहित्य, तथा जीवन में जनसामान्य को ही अधिक महत्व देने के सिद्धान्त को जनवाद कहते हैं। प्रत्येक युग के श्रेष्ठ साहित्यकार का दृष्टिकोण जनवादी होता है तथा वह सामान्य जन का ही साथ देता है, ऐसा मार्क्स, एंगिल्स, लेनिन का विचार था जिसे प्रारम्भ में संकीर्ण मार्क्सवादियों ने नजरअंदाज कर दिया था, परन्तु जनवाद के इतिहास में भी, तथा अन्यथा भी यही परिभाषा श्रेष्ठ है।परन्तु आज का जनवाद कुछ और है। कला और साहित्य में जनवाद एक मार्क्सवादी विचारधारा है जिसका प्रादुर्भाव कार्ल मार्क्स की समाज और उसकी संरचना की विशेष प्रकार की व्याख्या से हुआ। यह सर्वहारा वर्ग का साहित्य और उसकी कला है।
स्वाभाविक रूप से आज का जनवाद रूस की अक्तूबर क्रांति का परिणाम है। उस क्रान्ति के बाद संकीर्ण मार्कस्वादियों ने 'प्रोलेट कल्ट' तथा 'ऑनगार्ड' जैसी संस्थाएं बनायी थीं तथा मार्क्स के वर्ग-संघर्ष को पूरी तरह लागू करने पर जोर देते हुए सर्वहारा साहित्य की मांग की थी। 1932 तक इन्हीं 'कुत्सित समाजशास्त्रियों' का बोलबाला था। परन्तु मैक्सिम गोर्की जैसे लोगों की आवज पर ऐसी संस्थाओं को भंग कर 'सोवियत लेखक संघ' की स्थापना की गयी तथा 'सामाजिक यथार्थवाद' के व्यापक जीवन-दर्शन के आधार पर रचनाएं आने लगीं। ऐसे साहित्य के 'प्रगतिशील साहित्य' कहा गया।
जहां तक भारत का सवाल है, 1936 में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध तक ऐसी रचनाओं में संकीर्णता रही, परन्तु उसके बाद स्थितियां बदल गयीं। सम्पूर्ण विश्व के आम जनों में एक राजनीतिक चेतना आयी कि चंद निहित स्वार्थ वाले नेता किस तरह जनता को युद्ध में झोंक देते हैं। 'जनता का जनतंत्र' हो इसकी अवधारणा मजबूत हुई। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 'जनवादी' नाम से एक प्रकाशन भी शुरु किया था। इससे जो चिंतनधारा निकली तथा जिसके आधार पर लेखन हुआ उसे ही सर्वाहारा, प्रगतिशीत, तथा जनवादी साहित्य के नाम से अभिहित किया गया।