तंत्र
तंत्र शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। शक्ति के उपासक शाक्तशास्त्र को तंत्र कहते हैं। आगमों के तीन प्रकारों में से एक को तंत्र कहा जाता है, जिसका अधिकारी सात्विक व्यक्ति को माना गया है। महाभारत में न्याय, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र आदि के लिए भी तंत्र शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्हीं अर्थों में न्यायतंत्र, चिकित्सातंत्र आदि शब्द आये। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्य में स्मृति को तन्त्र कहा है। इस प्रकार तन्त्र का एक अर्थ यह है जो ज्ञान के विस्तार के लिए सांगोपांग वर्णन करता है वह तन्त्र कहा जाता है।परन्तु तंत्र के नाम से एक श्रेणी का साहित्य भी है। यदि तंत्र करने वाले को तांत्रिक कहते हैं तो फिर तांत्रिक पंचदेवों - सूर्य, गणेश, विष्णु, शिव तथा शक्ति में से किसी एक का उपासक हो सकता है। फिर किसी एक देवी या देवता की उपासना करने वाले तांत्रिकों में भी सिद्धान्तों तथा आचरणों में भिन्नता है तथा उनके भी अपने-अपने सम्प्रदाय तथा उपसंप्रदाय हैं। उदाहरण के लिए शिव के उपासकों में शैव-सिद्धान्ती, अद्वैत-शैव, कश्मीरी शैव, लाकुलीश, पाशुपत, रसेश्वर आदि।
काशिका में इसे तन् धातु से बना मानकर उसका अर्थ किया गया कि जिससे ज्ञान का विस्तार होता है उसे तन्त्र कहते हैं।
शैवसिद्धान्त का कामिक आगम कहता है कि तन्त्र वह है जो तत्व तथा मन्त्र से सम्बंधित विपुल अर्थों का विस्तार करता है तथा इसके द्वारा साधक का उद्धार करता है।
इतना कहा जा सकता है कि तन्त्रों में देवता के स्वरूप, गुण, कर्म आदि का चिन्तन होता है, उसी विषय के मन्त्रों का उद्धार किया गया होता है, तथा उन मंत्रों को यन्त्र में संयोजित कर देवता की उपासना होती है, उपासना के पांचों अंग – पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम, तथा स्तोत्र होते हैं जिन्हें व्यवस्थित किया गया होता है।
तंत्र तीन तीन प्रकार के हैं - शाक्ततन्त्र, शैवतन्त्र, तथा वैष्णवतन्त्र। इन प्रमुख तंत्रों के भी अनेक उपविभाग हैं। इसमें भी वैदिक तथा अवैदिक रूप पाये जाते हैं।