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ताल

ताल स्वर की गति को निर्धारित करने वाला वह तत्व है, जो गायन में स्वरसंधियों के बीच रहता है। मात्रिक छन्दों की लय ताल के अधीन ही रहती है। यदि किसी गीत में मात्राएं पूरी भी हों और ताल भंग होता हो तो लय बिगड़ जाता है।

भारतीय गायन परम्परा में ताल का विशेष महत्व है, ठीक उसी प्रकार जैसे लय का महत्व है। ताल का स्थान स्वर की तुलना में गौण अवश्य है परन्तु संगीत में यदि ताल न हो तो स्वर प्रवाह के साथ एकरस होने वाला लय बिगड़ जाता है क्योंकि उस प्रवाह की गति का उतार-चढ़ाव अनियंत्रित हो जाता है। ताल एक तरह का माप है, और उसी माप के अनुसार संगीत को चलना होता है। जिस प्रकार सिर पर बाल न होने से व्यक्ति गंजा हो जाता है उसी प्रकार ताल न होने पर संगीत गंजा हो जाता है। इसी लिए कहावत भी है - सुर गया तो सिर गया, ताल गया तो बाल गया।

ताल की अवस्थिति और माप के आधार पर इसके भेद किये गये हैं - जैसे एक ताल, चार ताल, आड़ा ताल, झपताल आदि।

त्रिकल तथा पंचकल की आवृत्ति से बने छन्द में ताल पहली मात्रा पर होता है। त्रिकल में तीन-तीन मात्राओं के अन्तर से अर्धात् 1-4-7-10... आदि स्थानों पर तथा पंचकल में पांच-पांच मात्राओं के अन्तर से अर्थात् 1-6-11-16 ...आदि स्थालों पर इसकी अवस्थिति होती है।

सप्तकल में पहली दो मात्राएं ताल बिना छूट जाती हैं और ताल तीसरी और छठी मात्रा पर पड़ता है। जैसे - 'हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका' की पहली दो मात्राएं 'हरि' ताल के बिना छूट जाती है तथा ताल तीसरी मात्रा ग पर तथा छठी का पर पड़ता है। परन्तु मात्राएं निश्चित हों तो भी ताल की स्थिति भिन्न-भिन्न हो सकती है। जैसे - दादालदा, दादादाल, लदादादा, दालदादा में तालों की अवस्था हर शब्द में अलग-अलग स्थानों पर है परन्तु सभी में मात्राओं की संख्या समान है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक शब्द की आवृत्ति तालों के अलग-अलग स्थानों में होने के कारण अलग-अलग छन्दों का सृजन करती है।

निकटवर्ती पृष्ठ
ताला-कुंजी, ताशी लिंग, तिनका, तिरस्कार, तिरुमुलावरम तट

Page last modified on Monday May 26, 2025 14:30:45 GMT-0000