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तुल्ययोगिता

तुल्ययोगिता साहित्य में एक अर्थालंकार है। इसमें तुल्य-परस्पर समान-योग का सम्बंध अथवा अन्वय होता है। उद्भट, रुप्यक, तथा विद्याधर ने इसमें औपम्य का अन्तर्निहित होना अनिवार्य माना है। इसका अर्थ हुआ कि प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वस्तुएं एक ही गुणधर्म के आधार पर सम्बद्ध तथा सादृश्य हों। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में सादृश्य-प्रतिपादन में तुल्ययोगिता का होना कहा है। मम्मट तथा विश्वनाथ ने प्रकृत तथा अप्रकृत के साधारण धर्म के ग्रहण को ही तुल्ययोगिता कहा है। जयदेव ने चन्द्रालोक में क्रियादि के द्वारा प्रस्तुतुतों तथा अप्रस्तुतों की तुल्यता को तुल्ययोगिता अलंकार कहा। अप्पय दीक्षित ने धर्मैक्य को तथा हित तथा अहित में व्यवहारतुल्यता को तुल्ययोगिता माना।

इस प्रकार तुल्ययोगिता अर्थालंकार की अलग-अलग परिभाषाओं के अधार पर इसके तीन भेद किये गये हैं।

प्रथम में केवल अनेक अप्रस्तुत अथवा अप्रस्तुतों का एक ही साधारण धर्म एक बार कहा जाता है।
उदाहरण – लखि तेरी सुकुमारता, एरी या जग मांहि।
कमल, गुलाब, कठोर से किहिं को लागत नाहिं।
यहां कमल तथा गुलाब के एक ही धर्म का कथन एक बार कहा गया है।

वर्ण्य तथा अवर्ण्य के आधार पर पद्माकर ने इसके भी दो भेद किये हैं।

द्वितीय भेद में हित-अनहित के तुल्य वर्णन को रखा गया है।
उदाहरण – जे निसि दिन सेवन करैं, अरु जे करैं विरोध।
तिन्हैं परम पद देत हरि, कहौ कौन यह बोध।

तृतीय में प्रस्तुत उपमेय की उत्कृष्ट गुण वालों के साध गणना की जाती है।

उदाहरण – कामधेनु अरु कामतरू चिन्तामनि मन मानि।
चौथो तेरो सुजस हू, हैं मनसा के दानि।

Page last modified on Sunday March 12, 2017 05:17:07 GMT-0000