निर्गुण सम्प्रदाय
निर्गुण सम्प्रदाय भारत में एक धार्मिक सम्प्रदाय है जो ईश्वर के तीनों गुणों - सत्त्व, रज, और तम - से परे मानते हैं। उनके इस विचार को निर्गुण मत कहा जाता है, तथा उस सम्प्रदाय को सदस्य को निर्गुनिया। इस पंथ को निर्गुण पंथ या निर्गुण मार्ग भी कहा जाता है।श्वेताश्वतरोपनिषद् में निर्गुण शब्द का परमात्मा के अर्थ में उपयोग किया गया है और उसे सभी भूतों में अन्तर्निहित, सर्वव्यापी, सभी कर्मों को अधिष्ठाता, सबका साक्षी, सबको चेतन्तव प्रदान करने वाला, तथा निरुपाधि कहा गया है।
श्रीमद्भग्वद गीता में उसके बारे में कृष्ण ने कहा है -
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये। मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि। (7 : 12)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभि जानाति मामेभ्यः परमव्ययम्। (7 : 13)
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। (7 : 14)
अर्थात् ये जो कुछ सात्त्विक, राजस, या तामस भाव है, वे मुझसे ही हुए हैं परन्तु मैं उनमें नहीं हूं। इन्हीं तीन गुणों से यह सम्पूर्ण जगत है। मोहित नहीं जानते कि मुझ परमअव्यय से ही वे हैं। वह मेरी दैवी गुणमयी माया दुस्तर है, परन्तु जो केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस माया से पार हो जाते हैं, अर्थात् तर जाते हैं।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम। असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च। (13 : 14)
अर्थात् उसमें सभी इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसमें कोई भी इन्द्रिय नहीं है। वह सबसे असक्त रहकर, अर्थात् अलग होकर भी सबका पालन करता है, और निर्गुण होने पर भी, गुणों का उपभोग करता है।
नासदीय सूक्त में कहा गया है कि जब सृष्टि का अविर्भाव नहीं हुआ था तब न सत् था, न असत्, और न रजस् ही था।
अर्थात् तीनों गुणों से परे निर्णुण ही था।
कबीर उन्हें ही अगुन, गुनातीत, या निर्गुण ब्रह्म कहते हैं और उपसना करने को कहते हैं। वे उन्हें निरगुण राम कहते हैं और उसकी गति को अगम्य। निरगुण कह देने के बाद भी कबीर को इस शब्द की सीमा का आभास था इसलिए वह इसे अकथनीय भी कहते हैं। राजस, तामस, और सातिग इन तीनों गुणों को कबीर उसी की माया कहते हैं और भी उसे इन तीनों से परे चौथा पद कहते हैं।
हिन्दी के भक्ति साहित्य में निर्गुण मार्ग का प्रमुख प्रवर्तक कबीर को माना गया। यह निर्गुण धार बात में दो शाखाओं में बंट गयी - ज्ञानाश्रयी और शुद्ध प्रेममार्गी। ये विक्रम संवत् की 15वीं शताब्दी के अन्तिम भाग से लेकर 17वीं शताब्दी के अन्तिम भाग तक चलीं।
स्वामी रामानंद, उनके गुरू राघवानन्द, जयदेव, नामदेव, आदि संतों के साहित्य से निर्गुण धारा को काफी बल मिला।
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निर्गुणी भक्ति, निर्गुन, निर्णयात्मक आलोचना, निर्णयात्मक आलोचना प्रणाली, निर्वाण