अन्ना हजारे को केन्द्र सरकार उसी तरह शांत करने की सोच रही है, जैसे उसने बाबा रामदेव को शांत कर रखा है, लेकिन वह यह भूल रही है कि अन्ना बाबा रामदेव नहीं हैं और उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्होंने अपनी जान को भी राष्ट्र के लिए पहले से ही समर्पित कर रखा है। कांग्रेस जिस तरीके से अन्ना पर हमला कर रही है, वह अंततः उसी का विनाश करेगा। 16 अगस्त को हुई अन्ना की गिरफ्तारी अप्रत्याशित नहीं थी। उसके पहले कांग्रेस के नेता और मंत्री जिस तरह की बयानबाजी कर रहे थे, उससे साफ लग रहा था कि अन्ना के खिलाफ उन्होंने पुलिसिया दमन का इंतजाम कर रखा है।

कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी अन्ना के खिलाफ तू तड़ाक की भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और यह भी भूल रहे थे कि जिस व्यक्ति के खिलाफ वे इस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह उनके बाप की उम्र का है। सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी भी एक से बढ़कर एक बेसिर पैर की बातें कर रही थीं। वह कह रही थीं कि अन्ना यह गारंटी दें कि लोकपाल कानून बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त ही हो जाएगा। यानी वह लोगों को कह रही थी कि भ्रष्टाचार समाप्त ही नहीं किया जा सकता है। प्रधानमंत्री को अन्ना द्वारा लिखी गई चिट्ठी की भाषा पर वह एतराज कर रही थीं और वे यह बता नहीं रही थीं कि अन्ना ने उस चिट्ठी में ऐसा क्या बुरा लिख दिया था, जो लिखने योग्य नहीं था। उनके बगल में बैठे कपिल सिब्बल तो अपने पुराने अंदाज में बात कर रहे थे और पूछ रहे थे कि अन्ना के लोग इन्क्लाब की बात कैसे कर सकते हैं? उधर कोलकाता में प्रणब मुखर्जी संसद की दुहाई दे रहे थे और कह रहे थे कि संसद को कोई डरा घमका कर अपनी इच्छा के अनुसार कानून नहीं बनवा सकता।

इन सबसे ज्यादा आपत्तिजनक तो प्रधानमंत्री द्वारा अन्ना के खत को दिया गया जवाब था, जिसमें उन्होंने अन्ना से कहा था कि वे अपनी समस्या को दिल्ली पुलिस के पास ले जाएं और वहीं से उसका समाधान खोजें। यह जवाब किसी लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री का नहीं हो सकता। यह कोई नौकरशाह ही कह सकता है कि हमारा ऑफिस बहुत ऊंचा है, हमारे मातहत अधिकारी के स्तर का यह मामला है और उसी से बात करो। मनमोहन सिंह लंबे समय तक नौकरशाह भी रहे हैं, जाहिर है नौकरशाही के अपने अनुभव का इस्तेमाल करके वे अन्ना से उसी रूप में निबटना चाह रहे थे।

प्रधानमंत्री भूल गए थे कि वे नौकरशाह के पद पर नहीं बैठे हैं, बल्कि एक राजनैतिक पद पर बैठे हैं और उस पद पर बैठकर किया गया कोई भी निर्णय राजनैतिक निर्णय होता है, भले ही वह प्रशासन से संबंधित निर्णय हो अथवा अर्थव्यवस्था अथवा व्यापार से संबंधित। अन्ना के जवाब देने के बाद उन्होंने लाल किले से देश को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर संबोधित किया। जब भ्रष्टाचार पर उन्होंने बोलना शुरू किया, तो उन्हें जादू की छड़ी वाला वह जुमला याद आया जिसका इस्तेमाल कभी जवाहर लाल नेहरू ने किसी और संदर्भ में किया था।

प्रधानमंत्री लोगों को कह रहे थे कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमाकर वे भ्रष्टाचार को समाप्त कर दें। यानी वह अपनी सरकार की मंत्री अंबिका सोनी की ही बात कहना चाह रहे थे कि देश को भ्रष्टाचार से छुटकारा नहीं मिल सकता और देशवासियों को भ्रष्टाचार के साथ ही जीना पड़ेगा और इसके साथ ही मरना पड़ेगा। उनके उस भाषण पर अन्ना ने ठीक ही कहा था कि मनमोहन सिंह कपिल सिब्बल की भाषा बोल रहे थे। पता नहीं प्रधानमंत्री को इस बयान में छिपे व्यंग्य का अहसास हुआ होगा या नहीं, लेकिन उन्हें यह जानना चाहिए कि देश के लोग पहले ही कपिल सिब्बल को एक गंभीर मंत्री के रूप में खारिज कर चुके हैं, क्योंकि उन्होने एक वकील की तरह कुतर्क करते हुए यह साबित कर दिया था कि ए राजा के कार्यकाल में हुए 2 जी घोटाले में सरकारी कोष को कोई नुकसान ही नहीं हुआ था। कपिल सिब्बल की छवि गांव कस्बे के एक ऐसे रंगबाज की बन गई है, जो जोर जबर्दस्ती की भाषा का इस्तेमाल करता है। इसलिए अन्ना का यह कहना कि मनमोहन सिंह भी अब कपिल सिब्बल की भाषा बोलने लगे हैं, उनके ऊपर किया गया अबतक का सबसे बड़ा वैयक्तिक हमला है।

प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि संसद का काम कानून बनाना है और कोई उसे अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री यह भूल जाते हैं कि संसद ने अनेक बार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के दबाव के तहत कानून बनाए हैं। कुछ कानून तो सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का सम्मान करने के लिए बनाए गए तो कुछ कानून सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को निष्प्रभावी करने के लिए भी बनाए गए। प्रधानमंत्री यह भी गलत बोल रहे हैं कि संसद के बाहर के लोगों की कानून बनाने में कोई भूमिका नहीं होती। संसद कानून का उत्पादन करने वाली कोई फैक्ट्री नहीं है। संसद के बाहर देश समाज में जब भी कोई अव्यवस्था दिखाई पड़ती है, तो उसे व्यवस्थित करने के लिए संसद कानून बनाती है और उसमें बाहर के लोगों की भी मदद ली जाती है। कानून के निर्माण में बाहर के लोगों की राय लेना बहुत आम बात है। खुद केन्द्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसौदे पर संसद के बाहर के लोगों से राय आमंत्रित कर रही है। वह मुख्यमंत्रियों से भी उनकी राय जानना चाह रही है। सरकार के पास एक सांप्रदायिक सौहार्द विधेयक का मसौदा है, जिसे संसद से बाहर के लोगों ने ही तैयार किया है।

इसलिए संसद की सवौच्चता का गाना गाकर सरकार भ्रष्टाचार के आंदोलन में शामिल लोगों को गुमराह नहीं कर सकती। लोगों को पता है कि कानून तो संसद द्वारा ही बनाया जाना है, लेकिन संसद भी अंततः देश के लोगों के प्रति जिम्मेदार है। देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन की अनदेखी संसद भी नहीं कर सकती। आज तो केन्द्र सरकार को संसद में बहुमत भी हासिल नहीं है। लोकसभा में भी बहुमत से उसके पास तीन चार सांसद कम हैं और राज्य सभा में तो वह भारी अल्पमत में है। यदि दोनों संसदों का संयुक्त अधिवेशन हो, तो वहां भी सरकार स्पष्ट रूप से अल्पमत में है। फिर वह भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को कुचलने के लिए संसद की आड़ लेने का भ्रम कैसे पाल सकती है? (संवाद)