पर हमारे देश के लिए यह अच्छी बात है कि यहां का आंदोलन अहिंसक है और आंदोलनकारियों को उद्देश्य सरकार को हटाना भी नहीं है। आंदोलनकारी सिर्फ एक ऐसा कानून और उसके साथ एक ऐसा तंत्र बनवाना चाहते हैं, जो देश में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को कुछ राहत प्रदान कर सके और भ्रष्ट लोगों में दहशत का माहौल पैदा कर सके। मनमोहन सिंह को देश की जनता को इसके लिए बधाई देना चाहिए कि उनकी सरकार के रोज आ रहे भ्रष्टाचार की खबरों के बावजूद भी उस सरकार को हटाने के लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया जा रहा है। बस सिर्फ मांग इस बात की है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसा लोकपाल बने, जो एक प्यादे से लेकर प्रधानमंत्री तक के भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने और दोषियों को सजा दिलाने में सक्षम हो।
केन्द्र की सरकार की ओर से इस तरह के सक्षम, प्रभावी और सशक्त लोकपाल का विरोध हो रहा है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। इसका कारण यह है कि इस सरकार के अनेक मंत्री भ्रष्ट है और उन्होंने अपने कार्यकाल में अनेक भ्रष्ट गतिविधियों को अंजाम दिया है। इसलिए वे भयभीत हैं कि कहीं इस कानून का पहले शिकार वे खुद न हो जाएं। इसलिए उनकी ओर से भारी विरोध किया जा रहा है। पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का तो दामन साफ है। उनके ऊपर भ्रष्टाचार के कोई निजी और स्पष्ट आरोप नहीं लगे हैं, हालांकि उनके कार्यालय को भी भ्रष्टाचार के कुछ मामले में लिप्त होने की खबरे आई हैं। प्रधानमंत्री की आलोचना खुद भ्रष्ट होने के लिए नहीं, बल्कि भ्रष्ट लोगों को संरक्षण देने के लिए की जाती हैं।
प्रधानमंत्री को अच्छा लगे या बुरा, उनके पास अब एक ही रास्ता बचा है और वह है एक सशक्त लोकपाल कानून के निर्माण के लिए अपने आपको तैयार करने का। देश में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया है। इस आंदोलन की वह उपेक्षा नहीं कर सकते। अभी तो यह आंदोलन अहिंसक है, लेकिन जब कोई आदंालन लंबा खिंच जाता है, तो उसमें लंपट तत्व भी शामिल हो जाते हैं और अपने तरीके से आंदोलन का फायदा उठाने लगते हैं। तब अराजकता की स्थिति पैदा होने लगती है और सबका नुकसान होने लगता है। वैसी स्थिति पैदा नहीं हो, इसके लिए केन्द्र सरकार को तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिए और आंदोलनकारियांे की मांग को जितना संभव हो सके, उसे पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए। यही सरकार के हित में है और यही देश के हित में ही।
केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार से उपजे जन आक्रोश की गलत व्याख्या कर रही है। इसके कारण वह एक के बाद एक गलतियां किए जा रही है। अप्रैल में जब अन्ना अनशन पर बैठे थे, तो उसने चाल चलकर उनका अनशन तुड़वा दिया और विधेयक के लिए बनी एक मसौदा समिति में अन्ना सहित उनके 5 लोगों को शामिल कर लिया। उसकी कोई जरूरत ही नहीं था। अन्ना के लोगों द्वारा तैयार जनलोकपाल विधेयक पर उसे एक समिति बनानी चाहिए थी और उस समिति की बैठकों में अन्ना के लोगों को बुलाकर यह बताना चाहिए था कि उस जनलोकपाल विधेयक की क्या खामियां है और उन्हें कानून का रूप देने में क्या परेशानियां है। उन खामियों और उनसे होने वाली परेशानियों को ध्यान में रखते हुए अन्ना के लोगों के साथ मिलकर सरकार एक ऐसा विधेयक का मसौदा तैयार कर सकती थी, जो सबको स्वीकार होता।
लेकिन सरकार ने वैसा किया ही नहीं। दरअसल वह चाहती कुछ और थी। सत्ता में बैठे लोगों का एक जुमला होता है कि यदि किसी समस्या की उपेक्षा कर दी जाय और उसे टाल दिया जाए, तो वह अपने आप समाप्त हो जाती है। अन्ना के अप्रैल आंदोलन को केन्द्र सरकार ने अपने लिए एक समस्या के रूप मे देखा और उसे टालकर उसका समाधान निकालने की कोशिश की। उसने रामदेव को भी अन्ना के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहा, लेकिन वह इसमें सफल नहीं हुई। उसने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ चले रामदेव आंदोलन को कुचल डाला। रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ अनेक प्रकार की जांच शुरू करवाकर उसी में उनको उलझा डाला। रामलीला मैदान में रामदेव के घरने को पुलिस के बल पर हटाने के बाद केन्द्र सरकार इस गलतफहमी की शिकार हो गई कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन को भी वह उसी तरह समाप्त कर देगी। लेकिन केन्द्र सरकार ने देश के लोगों के दिमाग को पढ़ने में गलती कर दी।
सच तो यह है कि आज यदि अन्ना के आंदोलन को भारी जनसमर्थन मिल रहा है, तो उसका एक कारण उसके द्वारा रामदेव के आंदोलन का किया गया दमन भी है। उस दमन से आहत लोग आज चौगुन उत्साह से अन्ना के आंदोलन के साथ खड़े हो गए हैं, ताकि केन्द्र सरकार उसे भी रामदेवा के आंदोलन की तरह कुचल न सकें। वैसे यह कहना भी शायद उचित नहीं होगा कि रामदेव का आंदोलन सरकार ने दमन कर ही दिया था। सच तो यह है कि उस आंदोलन के शांत होने के बाद लोग अन्ना के जनलोकपाल विधेयक पर सरकार की राय देखना चाह रहे थे और इंतजार कर रहे थे कि अन्ना कब फिर एक्शन में आएं। सरकार द्वारा सशक्त और प्रभावी लोकपाल में दिलचस्पी नहीं दिखाने के बाद अन्ना एक बार फिर एक्शन में आए और रामदेव के आंदोलन से जुड़े लोगों को एक और मंच मिल गया। अन्य लोगों के साथ वे भी इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं और सरकार से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत तंत्र और कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, ताकि देश के लोगों के पास भ्रष्टाचार से निजात पाने का एक रास्ता दिखाई पड़े और भ्रष्ट लोगों में भय पैदा हो कि उनके खिलाफ भी एक सशक्त कानून है।
संसद और संसदीय समिति को अन्ना के आंदोलन के खिलाफ ढाल के रूप में इस्तेमाल करना सरकार अविलंब बंद करे। देश में अब साक्षरता की दर बढ़ गई है। जिस भाषा में संविधान लिखा गया है, उसकी भाषा देश के करोड़ों लोग जानते हैं। संविधान और कानून को समझने के लिए उन्हें कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम जैसे वकीलों की सहायता की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री को अब खुद पहल करके वीरप्पा मोइली और ए के एंटोनी जैसे स्वच्छ छवि के लोगों को आगे लाकर अन्ना और उनके लोगों से बात करनी चाहिए और एक सशक्त लोकपाल के निर्माण को जितनी जल्द हो सके, संभव बनाना चाहिए। (संवाद)
भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन
केन्द्र सरकार के पास बचा है एक ही रास्ता
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-08-20 08:46
अन्ना के नेतृत्व में चल रहा भ्रष्टाचार के खिलाफ यह राष्ट्रीय आंदेालन आजाद भारत का सबसे बड़ा आंदोलन है। केन्द्र सरकार को इस बात को लेकर खुश होना चाहिए कि यह एक अहिंसक और गांधीवादी आंदोलन है, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए ट्यूनिशिया तथा कुछ अन्य देशों के आंदोलन बहुत हिंसक हो गए थे। लीबिया में तो गृहयुद्ध चल रहा है। सीरिया में भी स्थिति लगभग उतनी ही विस्फोटक है। मिश्र में तो तख्तापलट ही हो चुका है। ट्यूनिशिया में भी सरकार का पतन हो गया है। उन देशों में भी सत्ता बदलने वाले वे आंदोलन मूल रूप से भ्रष्टाचार के ही खिलाफ हुए थे। अभी भी अरब के कुछ अन्य देशों में भी इस तरह के आंदोलन चल रहे हैं और उन देश की सत्ता के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है।