कांग्रेसियों के बीच तीन स्तरों पर संवादहीनता की स्थिति बनी हुई दिखाई देती है। एक स्तर तो संगठन के अंदर है। दूसरा स्तर सरकार के अंदर है, तो तीसरा स्तर सरकार और संगठन के बीच संवाद का अभाव होना है। अन्ना के आंदोलन के दौरान लंबे समय तक अनिर्णय की जो स्थिति बनी थी, उसका कारण इन्हीं तीनों स्तरों पर होने वाले संवाद का अभाव था।
कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी अन्ना आंदोलन के दौरान देश मे ंनहीं थीं। वे अपना इलाज कराने के लिए अमेरिका गई हुई थीं। अमेरिका जाने के पहले उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का निर्णय लेने के लिए 4 सदस्यों की एक समिति बना डाली थी। उन 4 लोगों की समिति की बैठक संकट काल के दौरान एक बार भी नहीं हुई। अन्ना के आंदोलन के दौरान इन चारों में से राहुल को छोड़कर बाकी तीनों को कभी कुछ नहीं पता था कि अन्ना के आंदोलन को किस तरह सरकार ले रही है। उनसे शायद कभी इसके बारे में बातचीत तक नहीं की गई। सोनिया के देश से बाहर रहने के कारण राहुल से उम्मीद की गई थी कि वे इस पैदा हुए शून्य को भरेंगे। लेकिन राहुल गांधी ने इस संकट के मौके पर आगे आकर पार्टी का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया। पार्टी के अंदर किसी को पता नहीं था कि अन्ना के मसले पर क्या किया जा रहा है अथवा पार्टी क्या सोच रही है। पार्टी के अंदर कांग्रेसी नेताओं के बीच इस मसले पर एक संवादहीनता पैदा हो गई थी। वह संवादहीनता आज भी समाप्त नहीं हुई है। लगता है कि सोनिया के देश वापस आ जाने के बाद ही यह स्थिति समाप्त होगी।
सरकार के अंदर भी वही स्थिति थी, जो कांग्रेस पार्टी के अंदर थी। अन्ना के आंदोलन से निबटने की जिन्हें जिम्मेदारी दी गई थी, वे ,खुद ही ताबडतोड़ फैसला किया जा रहे थे। वे किसी और को भी अपने फैसले में शामिल करने की जस्रत नहीं समझ रहे थे। शेष अन्य लोग बगल से तमाशा देख रहे थे। पहले पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल को अन्ना के आंदोलन से निबटने का जिम्मा दिया गया। उन्होंने अपनी एक रणनीति बनाई और उस पर अमल कर डाला। अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन उस गिरफ्तारी के बाद एकाएक लोग सड़कों पर आ गए। विपक्ष सरकार के खिलाफ तलवारें भांजने लगा। केन्द्र सरकार को उस रणनीति की मूर्खता का जबतक पता चला, तबतक देर हो चुकी थी।
उस रणनीति की विफलता के बाद सरकार कुछ समय तो लकवाग्रस्त रही। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सरकार के अंदर न तो कांग्रेसी मंत्री आपस में उस मसले से निबटने के लिए कोई मंत्रणा कर रहे थे और न ही सहयोगी पार्टियों से कांग्रेस के मंत्री इस मसले पर किसी प्रकार की बातचीत कर रहे थे। जब सांसदों के घरों का घेराव होने लगा और सांसदों में इसके कारण अफरातफरी मचले लगी, तो फिर सरकार की नींद टूटी और प्रणब मुखर्जी व सलमान खुर्शीद को मोर्चे पर लगा दिया गया। उन दोनों को अन्ना के मोर्चे पर लगाने के कारण पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल अपने आपको उपेक्षित पाने लगे। रक्षा मंत्री ए के एंटोनी कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री हैं। सोनिया गांधी ने कांग्रेस की चार संदस्यीय समिति का एक सदस्य भी बना रखा था, जिसे उनकी अनुपस्थिति में पार्टी की नीतियों तैयार करनी थी। लेकिन पूरे अन्ना आंदोलन के दौरान वे अपने आपको अलग थलग पाते रहे। विलास राव देशमुख को अंतिम समय में लाया गया, लेकिन उनकी भूमिका बहुत ही सीमित थी। उन्होंने आंदेालन की समाप्ति के बाद कहा भी कि उन्हें सीमित जिम्मेदारी दी गई थी, जिसका उन्होंने पालन किया।
इस आंदोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी और सरकार के बीच भी संवादहीनता बनी रही। वह संवादहीनता अभी भी बनी हुई है। सरकार ने सबकुछ अपने अनुसार किया। सोनिया गांधी देश में थी नहीं। राहुल गांधी इस मसले से अपने को दूर रख रहे थे। इसलिए मनमोहन सिंह किससे बात करते। खुद प्रधानमंत्री को पता नहंी चल रहा था कि वे क्या करें। उनकी भूमिका एक तमाशबीन की लग रही थी।
आज जो स्थिति कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार की बनी हुई है, वह यदि आगे भी बनी रहती है, तो कांग्रेस अगले साल 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में इसका खराब नतीजा भुगते बिना नहीं रह सकती। कांग्रेस के नजरिए से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश का चुनाव है। पंजाब में भी कांग्रस की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। यदि कांग्रेस ओर केन्द्र सरकार के अंदर संवादहीनता का यह आलम बना रहा तो चुनावों में कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। कहने की जस्रत नहीं कि कांग्रेस को अपनी स्थिति दुरुस्त करनी होगी। (संवाद)
कांग्रेस के अंदर की दरार चौड़ी हुई
अन्ना संकट के बाद पार्टी में सुधार की जरूरत
कल्याणी शंकर - 2011-09-02 19:38
कांग्रेस के अंदर अन्ना के आंदोलन के दौरान अकर्मण्यता का जो माहौल बना हुआ था, वह देखने लायक था। वह आंदोलन तो फिलहाल स्थगित हो चुका है, लेकिन कांग्रेस के अंदर बना वह माहौल अभी समाप्त नहीं हुआ है। कांग्रेस संगठन के अंदर ही नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार के अंदर कांग्रेसियों के बीच लगभग एक सी स्थिति बनी हुई है। किसी से यदि कोई बात पूछिए तो जवाब मिलता है इसके बारे में उनसे पूछिए। ये उनसे कौन हैं, इसके बारे में कोई खुलकर नहीं बोलना चाहता। बस इशारे में बात होती है और आपसे उम्मीद की जाती है कि आप इशारा समझ लीजिए।