सच कहा जाए तो 2007 की विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान ही उन्होने राष्ट्रीय राजनीति में ऊंची छलांग लगाने का व्यक्तित्व प्राप्त कर लिया था। उस चुनाव में भाजपा के सभी राष्ट्रीय नेता उनके नाम का कसीदा पढ़ रहे थे। भाजपा की विरोधी पार्टियों के राष्ट्रीय नेता उसके और भी पहले से नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाकर उनका कद बढ़ा रहे थे।
गुजरात विधानसभा के प्रचार के दौरान ही यह नारा लगने लगा था कि देश का अगला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को होना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उस तरह की नारेवाजी शायद अच्छी नहीं लगी। गुजरात में नरेन्द्र मोदी की जीत पक्क्ी थी। उनकी जीत के साथ उनके प्रधानमंत्री पद के दावे को मजबूत करते हुए और भी प्रयास किए जाते। इसलिए गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया। उस समय लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना पर दिए गए अपने बयानों के कारण पार्टी के अंदर अलग थलग पड़े हुए थे। नरेन्द्र मोदी के बढ़ते कद को छोटा करने के लिए आडवाणी का पार्टी के अंदर का वह अज्ञातवास समाप्त कर दिया गया, क्योंकि आडवाणी की फिर से वापसी करके ही प्रधानमंत्री की ओर बढ़ रहे मोदी के कदम को रोका जा सकता था।
आडवाणी को भाजपा के प्रधानमंत्री दावेदार बन गए, लेकिन भाजपा की 2009 चुनाव में हार हो गई। जिन्ना से जुड़े बयान को आरएसएस ने भले नजरअंदाज कर दिया हो, लेकिन संध और भाजपा के कार्यकर्त्ताओं को आडवाणी को फिर से पार्टी के शीर्ष पर लाना अच्डा नहीं लगा। राम मंदिर और जिन्ना पर दिए गए बयानों के कारण आडवाणी एक वक्ता के रूप में अपनी प्रतिष्ठा खो चुके थे। उनके भाषणों पर से लोगों का विश्वास भी उठ गया था। अब यदि किसी स्टार प्रचारक के भाषणों की विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो तो उसके भाषणों का उल्टा असर लोगों पर पड़ता है। आडवाणी ने उस चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह को कमजोर व्यक्ति कहा, लोगों को उनकी बात नागवार गुजरी और भाजपा को आडवाणी के नेतृत्व का नुकसान ही हो गया।
2009 लोकसभा चुनाव की हार के बाद आडवाणी को संघ ने एक बार फिर पार्टी के नेतृत्व से हट जाने को कहा। वे हट भी गए और सुषमा स्वराज व अरुण जेटली को क्रमशः लोकसभा और राज्यसभा में भाजपा का नेता मनोनीत कर दिया। ये दोनों स्वाभाविक रूप भाजपा के प्रधानमंत्री दावेदार बन गए। पर पद पाने के बाद भी उन दोनों मे से किसी का भी कद नरेन्द्र मोदी से ऊंचा नहीं हो सका। राजनाथ सिंह को आडवाणी को हटाने के बाद पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी वे अपना कद उस हद तक नहीं बढ़ा सके कि कोई उन्हें प्रधानमंत्री के पद के लायक मानता। उत्तर प्रदेश में पार्टी की सफलता राजनाथ के राष्ट्रीय कद बढ़ने की एक आवश्यक शर्त थी, लेकिन उनके अध्यक्ष बनने के बाद उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में भाजपा तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। उसके पहले जब राजनाथ सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे और उनके मुख्यमंत्रित्व काल में जब चुनाव हुआ था, तो पार्टी पहले स्थान से खिसककर दूसरे स्थान पर आ गई थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में तो भाजपा चौथे नंबर पर आ गई। इस तरह अपने गृहराज्य में पार्टी के पतन का नेतृत्व करने के कारण राजनाथ राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा नाम नहीं बन सके।
राजनाथ के बाद नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद पाने की महत्वाकांक्षा अबतक नहीं दिखाई है। एकाध बार वे नरेन्द्र मोदी की ओर ही इस पद के लिए इशारा कर चुके हैं। यानी 2007 के बाद लगातार कोशिशों के बावजूद दूसरी पंक्ति के नेताओं में नरेन्द्र मोदी का तोड़ ढूंढ़ने में पार्टी विफल रही है। सुषमा स्वराज एक तेज तर्रार नेता हैं। लेकिन उन पर कर्नाटक के बेल्लारी के रेड्डी भाइयों की गॉडमदर होने का तगमा लगा दिया गया। जब देश का राजनैतिक माहौल भ्रष्टाचार के खिलाफ बना हुआ हो, तो इस तरह की छवि किसी भी राजनेता को कमजोर कर देती है। सुश्री स्वराज के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनकी छवि भ्रष्टाचारियांे को संरक्षण देने वाले एक नेता की बनी। उन्हें लगा कि अरुण जेटली उनके खिलाफ रेड्डी भाइयों से संबंधित अभियान चला रहे हैं। उन्होंने पलटकर वार किया और रेड्डी भाइयों से अरुण जेटली के संबंधों को खुलासा कर दिया। इस तरह से श्री जेटली और सुश्री स्वराज ने एक दूसरे के कद को छोटा कर दिया।
उधर नरेन्द्र मोदी गुजरात में अपनी सरकार चलाते रहे और विकास पुरुष का तगमा पाते रहे। बीच बीच में वे राष्ट्रीय राजनीति पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते रहे। राष्ट्रीय राजनीति में उनके विरोधियों ने भी उनके राष्ट्रीय कद को बढ़ाने मे लगातार योगदान किया। राजनीति में आगे में राजनैतिक विरोधियों का बहुत बड़ा हाथ होता है। जो जितना बड़ा नेता होता है, उसका उतना बड़ा विरोध होता है। उस विरोध के कारण जो हारता है, वह राजनीति में समाप्त हो जाता है और जो विरोध के बावजूद लगातार बना रहता है, उसका कद और भी ऊंचा होता जाता है। यही नरेन्द्र मोदी के साथ होता रहा।
लेकिन मोदी की समस्या यह है कि उनकी पार्टी अपने बूते सत्ता में नहीं आती। उसे दूसरी पार्टियों का साथ लेना होता है। मोदी के ऊपर गोदरा के बाद के दंगों का आरोप लगता है। उनपर आरोप है कि ट्रेन जलने के बाद जब मुस्लिम विरोधी दंगे हो रहे थे, तो उन्होंने उसे रोकने की पूरी कोशिश नहीं की, हालांकि वे इस बात का खंडन करते हैं। पर उनके राजनैतिक विरोधी लोगों की जेहन से गोधरा के बाद के दंगों की याद भूलने नहीं देते।
यह सद्भावना उपवास मोदी ने यह दिखाने के लिए किया है कि उनमें कोई धार्मिक कट्टरता नहीं है और वे मुसलमानों की सुरक्षा करने में भी सफल रहे हैं। 2002 के बाद गुजरात में कोई उल्लेखनीय दंगा नहीं हुआ। इसे वे अपनी उपलब्धि बताते हैं। इस उपवास में भाजपा के नेता जिस तरह से उनके पीछे खड़े हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने प्रधानमंत्री की अपनी दावेदारी को अपनी पार्टी के अंदर और भी पुख्ता कर लिया है। सहयोगी जनता दल(यू) अभी भी मोदी को पचा नहीं पा रहा है, तो इसका कारण यह है कि नीतीश कुमार खुद भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकां़क्षा रखते हैं, लेकिन यदि भाजपा के अंदर मोदी स्वीकृत हो गए, तो नीतीश उनके लिए कोई समस्या नहीं होगे। (संवाद)
मोदी का उपवास: प्रधानमंत्री पद की ओर एक और कदम
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-09-19 11:05
यह कोई छिपी बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने अपना उपवास प्रधानमंत्री की अपनी दावेदारी को मजबूत करने के लिए किया है और इसमें वे बहुत हद तक सफल भी रहे हैं। भाजपा के अंदर वे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद सबसे कद्दावर नेता तो वह 4 साल पहले ही बन चुके थे, जब उन्होंने गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री तीसरी बार शपथ ली थी।