प्रदेश में 14 में से 13 नगर निगमों के लिए महापौर का, 64 नगरपलिकाओं के लिए अध्यक्ष का और 191 नगर पंचायतों के लिए अध्यक्ष का चुनाव होना है। पिछली बार चुनाव में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण था, पर इस बार 50 फीसदी आरक्षण हो जाने से आरक्षित क्षेत्रों के पुरुष कार्यकर्ताओं की सक्रियता में कमी देखी जा रही है। वैसे सभी राजनेताओं ने यह कोशिश की है कि उनके परिवार या रिश्तेदार को ही महिला सीट से टिकट मिले और इसमें उन्हें सफलता भी मिली है।

विधानसभा और लोकसभा चुनावों की तरह नगरीय्ा निकाय चुनावों में टिकट को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध या प्रदर्शन नहीं हुआ, पर कई बागी उम्मीदवारों के खड़े हो जाने से दोनों प्रमुख दल समस्याओं से जूझ रहे हैं। भाजपा ने तो अपने बागियों को पार्टी से निष्कासित कर कठोरता दिखाई है, पर कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाई है। कांग्रेस भले ही यह दावा करें कि इस बार पार्टी में बने अंदरूनी गुटों को खत्म करके चुनाव लडा जा रहा है, पर यह संभव नहीं दिख रहा है।

दोनों ही प्रमुख दलों के लिए यह मुश्किल भरा दौर है, क्योंकि कांग्रेस अभी भी गुटबंदियों से उबर नहीं पाई है और भाजपा ने विधानसभा चुनाव में किए वायदे को अभी तक पूरा नहीं किया है, जिसमें उसने कुछ ही महीने में बिजली की स्थिति में सुधार और पेयजल संकट को दूर करने का वायदा किया था। नगरीय निकाय चुनावों में इस बार स्थानीय मुद्दों के बिजली, पानी और सडक की समस्या भी केन्द्रीय मुद्दा हैं। नगरीय प्रशासन मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता बाबूलाल गौर का कहना है, "स्थानीय्ा चुनावों में स्थानीय्ा मुद्दे ही कारगर होंगे।" प्रदेश में बिजली और पानी गंभीर समस्या है। पिछली गर्मियों में दो- तिहाई नगरीय निकायों ने पेयजल संकट को झेला है और मानसून के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया है। अभी भी सौ से ज्यादा शहरों में रोजाना पेयजल की सप्लाई नहीं होती है। पिछले महीने ही बिजली में कटौती का समय बढाया गया है। ऐसी स्थिति में भाजपा को पिछली बार की सफलता को दोहराना मुश्किल लगता है। 2004 में हुए नगरीय निकाय के चुनावों में भाजपा को भारी सफलता मिली थी। 14 नगर निगमों में महापौर पद के लिए हुए चुनाव में 10 पर भाजपा को, दो पर कांग्रेस को ओर दो पर निर्दलीय को जीत हासिल हुई थी। इसी तरह उस समय 41 नगरपालिका में भाजपा के एवं 19 में कांग्रेस के उम्मीदवार और 101 नगर पंचायतों में भाजपा के एवं 66 में कांग्रेस के उम्मीदवार अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित हुए थे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की स्थिति नगरीय निकायों में ज्यदा बेहतर नहीं थी। सपा को 3 नगरपालिकाओं में और एक नगर पंचायतों में अध्यक्ष पद के लिए सफलता मिली थी, वहीं बसपा को 2 नगरपालिकाओं में और एक नगर पंचायत में सफलता मिली थी। भाकपा को महज एक नगर पंचायत में सफलता मिली थी।

पिछली बार भाजपा को प्रतिकूल स्थितियों में नगरीय निकायों में सफलता मिली थी। इस बार कांग्रेस का मनोबल बढा हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को मिल रही सफलता का लाभ प्रदेश में मिलने की संभावना है। दोनों दलों ने चुनाव में जीत को लेकर तैयारियों में कोई कसर नहीं छोडी है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने राज्य् स्तर के अलावा स्थानीय स्तर पर भी घोषणा-पत्र जारी किये हैं।

प्रदेश में अन्य दलों की प्रभावी उपस्थिति इस बार भी मिलने की संभावना कम ही दिखती है। बसपा और सपा उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे जिलों में ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। यानी चंबल, बघेलखंड और बुंदेलखंड के कई क्षेत्रों में चतुष्कोणीय मुकाबला होने की संभावना है। पिछली बार के मुकाबले इन दलों को कुछ ज्यादा सीटें मिल सकती हैं, क्योंकि इन दोनों दलों ने उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में सघनता से काम किया है। इसके अलावा इस चुनाव में भी बड़े पैमाने पर निर्दलीय उम्मीदवारों के जीतने की संभावना है। (संवाद)