जाहिर है अब राष्ट्रीय विकास परिषद का महत्व बहुत घट गया है। इसका गठन 6 अबस्त 1952 कों तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किया था। इसका गठन देश के संघीय ढांचे को मजबूत करने के लिए किया गया था। इसका पहला उद्देश्य योजनाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन इकट्ठें करना था और इसके लिए राज्यों की संभावनाओं को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने पर ध्यान था। इसका दूसरा उद्देश्य राज्यों के बीच साझी आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देना था। तीसरा उद्देश्य देश का संतुलित विकास करना था। योजनागत विकास में राज्यों की साझेदारी को सुनिश्चित करने के घ्येय से बनी इस परिषद की अब क्या हैसियत रह गई है, इसका पता इसकी ताजा बैठक को मीडिया में मिल कवरेज को देखने से लगता है।

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रीय विकास परिषद का गठन देश की सबसे बड़ी नीति निर्णायक संस्था के रूप में की थी। सभी देश के मुख्यमंत्री, सभी केन्द्र शासित प्रदेशों के प्रशासन प्रमुख, केन्द्र के सभी कैबिनेट मंत्री, केन्द्र के सभी स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री और योजना आयोग के सभी सदस्य इसके सदस्य होते हैं और वे सभी इसकी बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं।

लेकिन अभी हमने क्या देखा? इस बैठक में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता आई ही नहीं। उन्होंने अपने लिखित भाषण इस बैठक में भेज डालें। दोनों गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं। कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने भी इसकी बैठक में शामिल होने की जरूरत महसूस नहीं की। उन्होंने अपने राज्य केरल के ओनम पर्व का बहाना बनाकर अपनी अनुपस्थिति को तर्कसंगत ठहरा दिया।

राष्ट्रीय विकास परिषद की यह गति अकष्मात् नहीं हुई है। दरअसल शुरुआती दशकों में तो सबकुछ ठीकठाक रहा, क्योंकि केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हुआ करती थीं, पर धीरे धीरे राज्यों में र्गर कांग्रेसी सरकारें बनने लगीं और उनके साथ ही राष्ट्रीय विकास परिषद का महत्व घटने लगा। अनेक क्षेत्रीय नेता देश के अनेक राज्यों में उभरने लगे और उन्होंने राष्ट्रीय विकास परिषद को अपनी राजनीति का अखाड़ा बनाना शुरू कर दिया।

1980 के दशक में एक घटना एनटीआर से जुड़ी हुई है। वे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस हैसियत से वे परिषद की बैठक में शामिल थे। जब उनके बोलने की बारी आई, तो उन्होंने नकारात्मक बातें बोलनी शुरू कर दीं, पर उन्हें बोलने नहीं दिया गया। फिर तो उन्होंने बैठक का बहिष्कार ही कर दिया। उसके बाद मीडिया में उनके बहिष्कार की बड़ी बड़ी खबरे प्रकाशित हुईं, पर उस बैठक में क्या क्या निर्णय किए गए, इसके बारे में मीडिया ने मौन साध लिया।

उसके बाद धीरे धीरे राज्यों में क्षेत्रीय नेताओं का वर्चस्व बढ़ने लगा और राज्यों में उन पार्टियों की सरकारे बनने लगीं, जिनकी सरकार केन्द्र में नहीं थीं। इसके बाद केन्द्र और राज्यों के बीच अखाड़ा के रूप में राष्ट्रीय विकास परिषद का इस्तेमाल होने लगा। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों के विचारों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं दिखाई पड़ीं, तो राज्य सरकारों ने केन्द्र सरकार के खिलाफ अपने आक्रोश को जाहिर करने में किसी प्रकार की यहां कोई कंजूसी नहीं की।

पिछली बैठक में भी यही हुआ। जयललिता ने अपने लिखित भाषण में केन्द्र सरकार पर एक से एक आरोप लगाए, तो बैठक में उपस्थित होकर भाषण देते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र सरकार की बखिया उघेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी नरेन्द्र मोदी की हां में हां मिलाई, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को तो श्री मोदी की हां में हां मिलाना ही था। इस तरह परिषद की बैठक 12वी पंचवर्षीय योजना पर कम, पर केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच के तनाव पर चर्चा के लिए ज्यादा जाना गया। यदि मीडिया मे ंकोई खबर छपी, तो यह इस तनाव की खबर थी। इसके बारे में मीडिया ने ज्यादा उत्सुकता नहीं दिखाई कि 12वीं पंचवर्षीय योजना को लेकर वहां क्या बातें हुईं। (संवाद)