सवाल उठता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस किस तरह के भविष्य का इंतजार कर रही है? आज पार्टी के सामने जितनी चुनौतियां हैं, उतनी कभी नहीं रही और आज पार्टी जितनी कमजोर है, शायद अतीत में उतनी कभी नहीं रही। यानी अपने इतिहास में सबसे ज्यादा कमजोर कांग्रेस को अपने इतिहास की सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना करना है और वह भी राहुल गांधी के नेतृत्व में। क्या राहुल गांधी पार्टी को वह नेतृत्व दे पाएंगे, जिसे पार्टी आज बहुत ही तीव्रता से महसूस कर रही है? युवा गांधी को सक्रिय राजनीति में आए करीब 10 साल हो चुके हैं। उनके व्यक्तित्व के बहुत सारे पहलू लोगों के सामने आ चुके हैं। उन पहलुओं के देखते हुए कुछ अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि वे पार्टी को कौन सी दिशा देंगे और पार्टी उनके नेतृत्व में किस तरह से काम कर सकेगी?
अपने एक दशक के राजनैतिक कैरियर में राहुल गांधी के लिए सबसे अच्छा समय 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद का समय था। उस चुनाव में कांग्रेस को 200 से ज्यादा सीटें 1991 के बाद पहली बार मिली थी। यानी 18 साल के बाद कांग्रेस ने 200 सीटों का आंकड़ा पार किया था और उस आंकड़े को पार करने में उत्तर प्रदेश की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। वहां कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। कांग्रेस के उस अच्छे प्रदर्शन का श्रेय राहुल गांधी को मिल रहा था, क्योकि उन्होंने इस चुनाव में जमकर प्रचार किया था। उत्तर प्रदेश में पार्टी के बेहतर प्रदर्शन का श्रेय तो सिर्फ उन्हें ही मिल रहा था, क्योकि पिछले कई वर्षो से वे उत्तर प्रदेश पर खास घ्यान दे रहे थे। वे दलितों के घरों मुहल्लों में जाते थे और उनके साथ खाते व समय बीताते थे। जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पहले से बेहतर सफलता मिली, तो उसका श्रेय जाहिराना तौर पर राहुल गांधी को मिलना था।
उत्तर प्रदेश का चुनाव फल राहुल गांधी के लिए एक और मायने में महत्वपूर्ण था। राहुल चाहते थे कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी से समझौता नहीं करे और अपने दम पर ही राज्य में चुनावों में कूदे। कांग्रेस के कुछ अन्य वरिष्ठ नेता समाजवादी पार्टी से चुनावी गठबंधन चाहते थे और 20 सीटों पर समझौते की स्थिति में भी सपा से तालमेल अथवा गठबंधन करना चाहते थे, पर सपा 15 सीटों से ज्यादा देने को तैयार नहीं थी और सपा से कांग्रस में आए नेताओं को कांग्रेसी टिकट दिए जाने के भी खिलाफ थी। कम सीटें देने और उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया को भी प्रभावित करने की सपा की जिद के कारण कांग्रेस का उसके साथ समझौता नहीं हुआ और अंत में राहुल के फार्मूले के अनुसार कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव मैदान में उतरी। कांग्रेस को 22 सीटें मिली। यानी 20 सीटों पर चुनाव लड़ने की सपा से मांग करने वाली कांग्रेस को अपने दम पर ही 22 सीटें मिल गईं, जो सपा को मिली कुल सीटों से एक ही कम थी और सत्तारूढ़ बसपा से तो एक सीट ज्यादा ही थी।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन को राहुल गांधी की निजी जीत माना गया। आमचुनाव के तुरत बाद फीरोजाबाद लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर की जीत हो गई। इस तरह 23 सीटें पाकर कांग्रेस राज्य में सबसे ज्यादा लोकसभा सांसद रखने वाली पार्टी बन गई और सपा 22 सीटों पर आ गई। फिर तो राहुल गांधी की जयजयकार हो गई। यह माना जाने लगा कि अब उनके नेतृत्व में कांग्रेस 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बहुमत ला सकती है और यदि बहुमत नहीं भी लाए तो कम से कम सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तो उभर सकती ही है। उत्तर प्रदेश में अच्छी होती स्थिति को देखते हुए माना गया कि बिहार में भी पार्टी अच्छा कर सकती है, क्योंकि दोनों राज्यों की राजनीति लगभग मिलती जुलती है। दोनो राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करने का मतलब कांग्रेस द्वारा 2014 के चुनाव में अपने बूते बहुमत तक पहंुचने की उम्मीद की जाने लगी। और यह सब होना था राहुल गांधी के नेतृत्व में।
राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के बाद और भी ज्यादा मेहनत करनी शुरू कर दी। युवाओं को पाटी्र्र में लाने और दलितों को फिर से पार्टी से जोड़ने के लिए उनका अभियान और भी तेज हो गया। उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन के बाद बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी वह प्रदर्शन दुहराने का उत्साह पार्टी में था, लेकिन 2010 के शुरुआती महीनों से ही केन्द्र सरकार एक के बाद एक झटके खाने लगी और उसका असर कांग्रेस पर भी पड़़ने लगा। वे झटके बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार की खबरों के कारण लग रहे थे। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की अप्रतयाशित सफलता और फीरोजाबाद की जीत के बाद विधानसभा उपचुनावों मे ंपार्टी का प्रदर्शन गड़बड़ाने लगा और महंगाई के कारण लोगों का असंतोष भी केन्द्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के खिलाफ उभरने लगा। पहले आइपीएल घौटाला सामने आया, जिसके शिकार केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर हुए। उसके बाद तो घोटालों की बाढ़ आने लगी। वैसे माहौल में राहुल गांधी का काम कठिन से कठिनतर होता गया, क्योंकि जब लोग महंगाई से ग्रस्त हों और भ्रष्टाचार की खबरे रोज की रोज आ रही हों, तो फिर केंन्द्र की सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी के नेता को लोगों के बीच उनका जवाब तो देना ही होता है। पर राहुल गांधी के पास उनका कोई संतोषजनक जवाब नहंी था। वे उन मामलों पर ज्यादातर चुप ही रहे। पर चुप रहकर तो राजनीति नहीं की जा सकती। और यही कारण है कि राहुल गांधी के प्रयास अब विफल होने लगे।
राहुल को सबसे बड़ा सदमा बिहार ने दिया। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार में पार्टी को मजबूत करने की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर थी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भले सिर्फ दो सीटें मिली थीं, पर पाटी्र को 13 फीसदी मत मिले थे, जो पहले मिलने वाले मतों से ज्यादा थे। बिहार में भी कांग्रेस में उत्साह था और राज्य के उपेक्षित वर्गो के लोग भी कांग्रेस को आशा भरी निगाहों से देख रहे थे, पर भ्रष्टाचार और महंगाई ने कांग्रेस का काम कठिन कर दिया। जब बिहार का चुनाव प्रचार चल रहा था, तो उसी समय दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार सामने आ रहे थे और तैयारियों की कमियां भी सामने आ रही थीं। टिकट बंटवारे में भी गड़बडि़यां हुई थीं। उन सबका असर यह हुआ कि कांग्रेस को अपने इतिहास की सबसे शर्मनाक हार का सामना वहां करना पड़ा। मात्र 4 सीटें ही पार्टी को मिली। उसके बाद तो देश का माहौल लगातार कांग्रेस के खिलाफ होता जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर राहुल को अपने आपकों स्थापित करने का मौका मिला है। इसका चुनावी नतीजा ही तय करेगा कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस फिर से अपनी पुरानी गरिमा हासिल करेगी या और पतन की ओर आगे बढ़ेगी। (संवाद)
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस
देश की सबसे पुरानी पार्टी का भविष्य दाव पर
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-11-12 10:21
अब यह तय हो गया है कि कांग्रेस का नेतृत्व जल्द ही सोनिया गांधी के हाथ से निकलकर राहुल गाधी के हाथ में आने वाला है। सोनिया गांधी अध्यक्ष पद पर रहते हुए भी अब पार्टी के लिए ज्यादा समय नहीं निकाल पा रही हैं और अब कांग्रेस की युवा और छात्र शाखा के अलावा पार्टी के अन्य निर्णयों में भी राहलु गांधी को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जा रहा है। यही नहीं, अब इंदेलिजेंस ब्यूरों के प्रमुख से भी कहा गया है कि देश के राजनैतिक माहौल के बारे मंे वे राहुल गांधी को भी अपने विचारो और सूचनाओं से अवगमत कराए रहें। पहले वे सिर्फ प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को ही इस तरह की ब्रीफींग करते थे।