उसके बाद ही यह बहस छिड़ी गई है। आशा के अनुरूप विपक्ष प्रधानमंत्री के बयान का विरोध कर रहा है, पर आश्चर्यजनक रूप से एक उद्योगपति राहुल बजाज का बयान आया है कि निजी क्षेत्र बाजार आधारित क्षेत्र है और जो निजी कंपनियां बाजार में मर रही हैं, उन्हें मरने दिया। उन्होंने केन्द्र सरकार द्वारा किंगफिशर को किसी प्रकार की सहायता देने की कोशिश का विरोध किया।

यदि केन्द्र सरकार ने किंगफिशर को उबारने के लिए कोई वित्तीय पैकेज दिया या किसी अपरोक्ष तरीके से भी वित्तीय सहायता पहुंचाई, तो फिर अन्य विमानन कंपनियां भी अपने हाथ उसके सामने फैला देगी। गौरतलब हो कि देश में 5 निजी विमानन कंपनियां हैं और उनमें से 4 घाटे में चल रही हैं। सरकारी क्षेत्र का एअर इंडिया खुद भारी घाटे में चल रहा है। प्रश्न उठता है कि क्या केन्द्र सरकार घाटे में चल रही इन 5 कंपनियों के बोझ को उठा पाने में सक्षम है?

सवाल सिर्फ इन विमाननन कंपनियों का ही नहीं है। यदि केन्द्र सरकार इस उद्योग की कंपनियों को उबारने में मदद करती है, तो फिर निजी क्षेत्र की घाटे मंे चलने वाली अन्य अनेक कंपनियां भी अपने अपने दावे के साथ सरकार के सामने आ खड़ी होंगी और वह भी कहेंगी कि सरकार उन्हें उबारे। उनके पास भी अपने कर्मचारियों की नौकरी बचाने और उनके उपभोक्ताओं को होने वाली असुविधाओं का दूर करने का तर्क होगा। राहुल बजाज ने सवाल खड़ा कर भी दिया है कि कल यदि उनकी बजाज कंपनी घाटे में जाती है, तो क्या केन्द्र सरकार उनकी कंपनी का भी बेलआउट करेगी?

लिहाजा किंगफिशर का केन्द्र सरकार द्वारा किसी राहल पैकेज देकर बेलआउट करने का मसला एक पेचीदा मसला बन बया है। चूंकि भारत का नागर विमानन उद्योग ही आज संकट में है, इसलिए इस उद्योग के लिए राहत की नीतियां अपनाने की बात तो समझ में आती है, लेकिन किसी कंपनी विशेष के लिए विशेष चिंता दिखाने की बात समझ में नहीं आती। यहां एअर इंडिया एक अपवाद है, क्योंकि वह एक सरकारी कंपनी है। सरकार उसकी मालकिन है और वह यदि अपने संसाधनों से उसका बेलआउट करती है, तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पर एक निजी कंपनी के प्रति इस तरह की चिंता प्रधानमंत्री द्वारा दिखाना निश्चय ही लोगों के लिए चिंता का कारण होना चाहिए।

आज दुनिया भर में कार्पोरेट सेक्टर के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। अमेरिका में इस वाॅल स्ट्रीट प्रोटेस्ट कहा जा रहा है, तो उसे देखते हुए अन्य अमीर देशो में चल रहे उस आंदोलन को भी उसी का नाम दिया जा रहा है। 3 साल पहले अमेरिका में वित्तीय संकट शुरू हुआ था और वे संकट वित्तीय कंपनियों की गड़बडि़यों और कुप्रबंधन के कारण शुरू हुआ था। उसके बाद दुनिया भर में आर्थिक संकट शुरू हो गया था। किसी तरह उस पर काबू पाया और उसके लिए कार्पोेरेट सेक्टर को पैकेज दिए गए। उसके कारण उन अमीर देशों की पूरी अर्थव्यवस्थाएं ही प्रभावित होने लगी। लोगों को अहसास हुआ कि कार्पोरेट सेक्टर को बचाने के लिए सरकारों ने उनपर अतिरिक्त बोझ डाल दिया और वे सरकार के खिलाफ आक्रोशित हो गए और कार्पोरेट सेक्टर के खिलाफ भी।

लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमीर देशों के रास्ते पर ही चलना चाहते हैं। उन्हीं के रास्ते पर चलकर वे कार्पोरेट सेक्टर की निजी कंपनियों को राहत पहुंचाने के हक में हैं, लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि उसके क्या परिणाम उन देशों मे निकल रहा है। भारत की आर्थिक और राजनैतिक भी बहुत अच्छी नहीं है। यहां भयंकर महंगाई का दौर चल रहा है और भ्रष्टाचार की रोजाना आने वाली खबरों के कारण जनमानस बुरी तरह उद्वेलित हो रहा है। ऐसे दौर में यदि केंन्द्र सरकार ने अपने सीमित संसाधनों का इस्तेमाल आम लोगों की महंगाई जैसी समस्या को हल करने के लिए नहीं, बल्कि संकट ग्रस्त निजी कंपनियों को उबारने में किया और उस उबारने का बोझ भी आम लोगों पर ही डाल दिया, तो देश की स्थिति भारी विस्फोटक हो सकती है और अराजकतावादी शक्तियां भी अपना सिर उठा सकती है।

यदि किसी निजी कंपनी विशेष की बात न भी करें, तो इतना तो निश्चित ही है कि हमारा नागरिक विमानन सेक्टर आज बीमार है। नेशनल कैरियर एअर इंडिया खुद घाटे में है। पिछले एक दशक में कुछ विमान कंपनियां बंद या दूसरे में विलीन भी हो चुकी हैं। सहारा इंडिया जेट एयरवेज में तो डेक्क्न एयरलाइंस किंगफिशर में विलीन होकर अपना अलग अस्तित्व गंवा चुकी है। यह ऐसे समय मे ंहो रहा है, जब भारत तेज विकास दर के दौर में है और विमान से यात्रा करने वाले लोगो की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। मांग पक्ष मजबूत होने के बाद भी विमान कंपनियों की यह दशा सोचने को मजबूर करता है कि आखिर यह हो क्या रहा है।

एक बड़ा कारण तो प्रबंधन का ही है। एअर इंडिया सरकारी प्रबंधन का शिकार है और भ्रष्टाचार का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। पर निजी कंपनियां भी यदि बीमार है, तो मानना पड़ेगा कि एअरइंडिया की दुर्दशा के लिए सिर्फ इसका सरकारी होना ही जिम्मेदार नहीं है। एक बड़ा कारण तो विमान का इंधन एटीएफ का महंगा होते जाना है। कच्चे तेल की बढ़ती कीमत और रुपये की अंतरराष्ट्रीय बाजार में आ रही कमजोरी के कारण अन्य तेल उत्पादों के साथ एटीएफ भी लगातार महंगा होता जा रहा है। इसका बोझ विमानन उद्योग पर पड़ रहा है और उसकी रुग्नता का एक बड़ा कारण यह भी है।

एटीएफ का महंगा होना विमानन उद्योग को दो तरह से तबाह कर रहा है। पहले तो यह इनपुट लागत बढ़ा देता है, जिसके कारण खर्च बढ़ जाता है। बढ़े हुए खर्च के कारण किराया बढ़ाने में समस्या इसलिए आ जाती है कि अन्य देशों मे एटीएफ भारत से सस्ता है और भारतीय विमानों को अन्य देशों के विमानों के साथ भी प्रतिस्पर्घा करनी पड़ती है। सस्ता एटीएफ खरीद कर उड़ रहे विदेशी विमानों से प्रतिस्पर्धा करने में महंगा एटीएफ खरीद कर उड़ रहा देशी विमान अपने आपको कमजोर स्थिति में पाता है। इसके कारण वह एटीएफ की महगाई का बोझ पूरी तरह उपभोक्ताओं पर डालने में सक्षम नहीं हो पाता है।

जाहिर है, आज देश के पूरे विमानन उद्योग पर ही घ्यान दिए जाने की जरूरत है, न कि किसी खास विमानन कंपनी पर। यदि कुप्रबंधन के कारण कोई कंपनी बीमार पड़ती है और बंदी के कगार पर पहुंचती है, तो फिर उसके लिए सरकार की तरफ से हायतोब्बा मचाने की शायद ही कोई जरूरत है। (संवाद)