प्रस्तावित कानून का नाम सिटीजेन्स राईट टू ग्रिवांस रिड्रेसल बिल 2011 रखा गया है। स्पष्ट है कि इस कानून का आधार जनता के अधिकार पर आधारित है। भारत में अधिकार पर आधारित चंद कानूनों की श्रृंखला में यह एक और कानून होगा। साफ है कि ऐसे कानूनों में न तो उतनी ताकत होती है और न ही ऐसे कानूनों का उल्लंघन करने पर उतनी सख्त कार्रवाई जितनी कि अन्य आपराधिक कानूनों में होता है। इस प्रस्वावित कानून का उद्देश्य भी जनता को सेवा पहुंचाते हुए जनहित सुरक्षित करना है, न कि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें दर्ज कर उन्हें दंडित करना। इस विधेयक के तहत पूरा ध्यान इस बात पर लगाया गया है कि जनता को यथाशीघ्र वे वस्तु या सेवाएं दी जाएं जिसका वह हकदार है। इसके लिए समय सीमा 15 दिनों की है और यदि उस अवधि में आवेदन का निष्पादन नहीं किया गया तो उसकी अपील उच्चाधिकारी से की जा सकती है जो एक महीने के भीतर अपील का निष्पादन करेंगे चाहे वह विलंब किसी भी कारण क्यों न हुआ हो।
विधेयक में कहा गया है कि यदि जनता का वह काम कोई अधिकारी नहीं करता है, जिसके लिए वह हकदार है, तो पीड़ित व्यक्ति को दुर्भावना के आधार पर उक्त अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई शुरु करने का हक होगा। इसी उद्देश्य के तहत दुर्भावना शब्द की व्याख्या है जिसमें रिश्वत की मांग भी शामिल है।
इस कानून को बनाने वालों ने शायद इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि पहले से ही देश में अनेक कानून हैं, जो प्रस्तावित कानून से भी काफी ज्यादा सख्त हैं, और जनता के पास उनके खिलाफ मुकदमे करने के अधिकार पहले से ही हैं। समस्या यह नहीं है कि जनता के पास अधिकार हों, पर समस्या यह है कि उन अधिकारों का समुचित लाभ लेने के लिए उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। बिना अधिकार के लाभ उठाने में रिश्वत काम आती है।
जब अन्ना हजारे भूख हड़ताल कर रहे थे उसी समय, और उसके पहले से भी लोकपाल विधेयक के मामले में विवाद इसी बात पर होता रहा है कि पक्षपात और रिश्वत के आधार पर लोगों के काम करने और न करने की प्रवृत्ति से जनता को होने वाले नुकसान से मुक्ति आखिर कैसे दिलाया जा सकेगा, जब लोकपाल के पास पर्याप्त अधिकार नहीं होंगे।
पक्षपात और रिश्वत के अलावा भ्रष्टाचार का एक आपराधिक स्वरुप है। पुलिस अधिकारी से लेकर न्यायालय के अधिकारी तक जनता का भयादोहन करते हैं जिसके मामले में न तो लोकपाल विधेयक के प्रारुप और न ही प्रस्तावित जनहित और जनसेवा विधेयक में समुचित प्रावधान किया गया है। रिश्वत न मिलने पर लोगों के काम को तर्कहीन पेंच लगाकर जिस तरह अधिकारी ध्वस्त करते हैं या विलंबित करते हैं उस ओर न तो लोकपाल न तो जनसेवा कानून ने ही गौर फरमाया है।
सरकारी फाइलों में काम नहीं करने के नुस्खे भरे पड़े हैं जिनमें से अधिकांश दुर्भावना से प्रेरित होते है। ऐसे मामलों पर भी नये प्रस्तावित कानून में समुचित प्रावधान नहीं किया गया है।
यह जनहित और जनसेवा कानून सूचना के अधिकार कानून, और उपभोक्ता कानून की तर्ज पर ही है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हर व्यक्ति बाजार में ठगा जा रहा है जो इस कानून की विफलता का प्रमाण है। नये प्रस्तावित कानून में भी जनता को एक उपभोक्ता की तरह ही समझा गया है। बेचारा उपभोक्ता सेवा की मांग तो कर सकता है लेकिन क्या उस कीमत पर सेवा हासिल कर सकेगा जितना की वे दे सके? पेट्रोल में मिलावट से भी मुक्ति नहीं और उसकी आसमान छूती मनमानी कीमतों से भी मुक्ति नहीं। हर स्तर पर भ्रष्टाचार के संकेत हैं, लेकिन क्या राहत मिल पायेगी। प्रस्तावित कानून में अजीब बात है कि भ्रष्टाचार के संकेत पर भी कार्रवाई की जा सकेगी। लेकिन सवाल उठता है कि अपराध के न होने पर भी संकेत के आधार पर मुकदमे शुरु करने का प्रावधान कितना उचित है?
इस विधेयक में सार्वजनिक अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि वे अपने विभागों में सिटिजन चार्टर बनवाएंगे और जनता को बताएंगे कि किस काम के लिए कौन सा अधिकारी जिम्मेदार है, और यह चार्टर सालाना तैयार होगा। यह कानून बनाने में भी सरकारी भ्रष्टाचार का ही नमूना है। इसके उदाहरण दिल्ली के डीटीसी बस स्टापों पर समय सारणी में मिल जायेगा जिसमें गलत बस के नाम होते हैं और बेचारा यात्री परेशान रहता है। उसी तरह सालाना तैयारी चार्टर में भी साल भर तक अनेक जिम्मेदार अधिकारियों सी सूची रहेगी जिनमें से अनेक वहां कार्यरत नहीं होंगे। ऐसी सूची को अप-टू-डेट होना चाहिए न कि भारत सरकार की वेब-साइटों की तरह जिनमें अनेक जिलों में 1991 के बाद न जनगनना का जिक्र है और न ही वर्तमान क्षेत्रफल। वर्तमान कानून ऐसे भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को कानूनी तौर पर एक वर्ष तक गलत सूची जारी रखने की वास्तविक छूट दे देता है।
प्रखंड, जिला, राज्य और केन्द्र स्तर पर नये अधिकारियों को तैनात करने की बात भी इस विधेयक में है। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से पंचायती राज संस्थानों, जो भारतीय संविधान संशोधन के बाद त्रिस्तरीय प्रशासन का संवैधानिक प्रावधान है, को इस प्रस्तावित कानून से अलग रखा गया है जो रहस्य है और अनेक आशंकाओं को जन्म देता है। न्यायप्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी इस नये कानून के दायरे में नहीं रखा गया है।
प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि कोई व्यक्ति सम्वद्ध विभाग में “शिकायत समाधान अधिकारी” के यहां शिकायत कर सकता है। लेकिन भ्रष्टाचार के उस तरीके का इसमें कोई समाधान नहीं है जिसमें जनता की शिकायत अर्जी पुलिस या अन्य अधिकारी स्वीकार ही नहीं करते। 15 दिनों में समाधान की बात तो तब होगी जब अधिकारी जनता की अर्जी ले लेगा। जनता तो थाने से लेकर न्यायालय तक अर्जी देने के लिए भ्रष्टाचारियों का शिखार हो जाता है। ऐसी स्थिति से निपटने के मामले में प्रस्तावित कानून खामोश है। कानून में कहा गया है कि 15 दिनों में कार्रवाई न होने पर फाइल स्वयमेव उच्चाधिकारी के पास जायेगी जिसमें कार्रवाई रपट भी होगी और जिसमें कार्रवाई न करने का कारण लिखा होगा। यहीं पर कुप्रशासन की पेंच है और फाइलें उसी तरह घुमती रहेंगी जैसे कि आज घुमती हैं।
राज्य और केन्द्र के स्तर पर अपील के अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे। यदि किसी अधिकारी को किसी नागरिक को देय सेवा “गलत ढंग से न देने का दोषी” पाया गया तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जायेगी।
इसके अलावा प्रस्तावित कानून में सूचना और सेवा केन्द्रों की स्थापना की बात की गयी है जो लोगों की शिकायत करने की प्रक्रिया में मदद करेंगे। लेकिन इतना से ही काम नहीं चलेगा क्योंकि जिन्हें मदद के लिए तैनात किया जाता है वे ही जब जनता का दोहन करते हैं तो उसे भ्रष्टाचार कहा जाता है। देश में ढेर सारे सूचना और सेवा केन्द्र हैं जिनके भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त है। प्रस्तावित कानून में सेवा न देने वाले पर क्या और कैसे कार्रवाई होगी इसपर लचीला रुख अपनाया गया है। रिश्वत या अन्य तरह से धन खर्च न करने वालों को मुश्किल से सेवाएं मिलती हैं, जिसपर यह कानून अंकुश नहीं रख पायेगा।
कुल मिलाकर प्रस्तावित कानून पढ़ने और सुनने में अच्छा है लेकिन भ्रष्टाचार की पीड़ा से जनता को इससे मुक्ति मिलने की कोई संभावना नहीं दिखती। कानून राजनीतिक ज्यादा है, न्यायप्रिय कम। फिर सभी महकमों को इस कानून के दायरे में लाया भी नहीं गया है और भ्रष्टाचार के अनेक आयामों से निपटने की इसकी क्षमता भी नहीं है।
प्रस्तावित जन हित और सेवा कानून से नहीं सुलझेगी भ्रष्टाचार की पेंच
ज्ञान पाठक - 2011-11-16 13:40
नई दिल्ली: पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार पर देश में चल रही राजनीति के नुकसान से बचने के उद्देश्य से संप्रग सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में जो जन हित और सेवा कानून ला रही है उससे न तो सरकार का उद्देश्य पूरा हो सकेगा और न ही जनता को कोई खास लाभ मिल पायेगा। यदि इसके वर्तमान प्रारुप पर गौर फरमाएं तो कहा जा सकता है कि यह बचकाना प्रयास है और स्वयं कानून के मूलभूत सिद्धांतों की ही धज्जियां उड़ाता है। साफ दिखाई देता है कि कानून बनाने वालों ने या तो भ्रष्टाचार की पेंच के मामले में अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन किया है या फिर जान-बूझकर जनता को ठगने की कोशिश की है।