अमेरिका में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ रही खाई के आंकड़े सामने आ रहे हैं। जनगणना का जो आंकड़ा पिछले दिनों सामने आया, उससे पता चलता है कि अब वहां गरीब लोगों की तादाद बढ़कर 4 करोड़ 90 लाख हो गई है, जो देश की कुल आबादी का 16 प्रतिशत है। इससे यह भी पता चलता है कि वहां के हिस्पैनिक, एशियाई मूल के लोगांे, बजु्रर्गो और २वेत लोगों मंे भी गरीबी का प्रतिशत बढ़ा है, जबकि अश्वेत आबादी में गरीबी का प्रतिशत कुछ कम हुआ है।

एशियाई मूल के अमेरकियों की गरीबी का आंकड़ा आबादी का 12 फीसदी ही बताया जा रहा था। कम से कम सरकार का तो यही कहना था, पर अब जब जनगणना के आंकड़े सामने आए हैं, तो पता चला है कि एशियाई मूल के गरीब लोगों का प्रतिशत वहां 16 दशमलव 7 फीसदी है। नन हिस्पैनिक २वेत के गरीबों का प्रतिशत 10 फीसदी से बढ़कर 11 फीसदी के ऊपर हो गया है। हिस्पैनिक आबादी का यह प्रतिशत 28 दशमलव 2 है, जबकि अश्वेतों का 25 दशमलव 4 फीसदी। यानि अब अश्वेतों की अपेक्षा हिस्पैनिक वहां ज्यादा गरीब हो गए हैं।

सरकार ने अपने आधिकारिक आंकड़े में पिछले सितंबर महीने में ही बताया था कि वहां गरीबों की कुल संख्या 4 करोड़ 62 लाख है, लेकिन अब जनगनणा के आंकड़े बता रहे हैं कि यह 4 करोड़ 90 लाख है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि देश में बुजुर्ग लोग ज्यादा गरीब हुए हैं, जबकि बच्चों की समृद्धि बढ़ रही है।

नीति निर्माताओं की एक बड़ी चुनौती यह है कि अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। पिछले सालों चली मंदी के दौरान सरकार ने जो कदम उठाए थे, उससे अमीर और भी अमीर हो गए, जबकि गरीब लोगों की संख्या और भी बढ़ गई। इसका मतलब है कि बजट में जो कटौती हो रही है, उसका असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है और सरकार द्वारा जो खर्च हो रहे हैं, उसके कारण अमीर और भी अमीर बन रहे हैं।

संसद की एक सुपर कमिटी है, जिसके सामने चुनौती बजट घाटे को कम करने के उपाय बताने की है। उसका लक्ष्य अगले 10 सालों में बजट घाटे को 12 खरब डाॅलर कम करना है। अगले 23 सितंबर तक सुपर कमिटी को इस समस्या का हल सामने लाना है, लेकिन यह हल आसान नहीं दिखता और सुपर कमिटी के सामने अमीरी गरीबी के बीच बढ़ती खाई एक नई चुनौती पेश कर रही हैं।

बजट घाटे को कम करने के लिए सामजिक सुरक्षा पर किए जा रहे खर्चो और गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की दी जा रही मुफ्त सेवाओं पर बंदिश लगाने की बात की जा रही है, लेकिन यदि ऐसा किया गया, तो गरीबों की समस्या और भी बदतर हो जाएगी। इससे गरीब ही नहीं, बल्कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लोगों को भी नुकसान होगा।

गरीबी तय करने के तरीकों पर भी मतभेद हो रहे हैं। सरकार जो आंकड़ा तैयार करती है, उसमें माना जाता है कि जो परिवार अपने कुल खर्च का एक तिहाई या उससे ज्यादा खाने पीने पर खर्च करता है, वह गरीब है। अनेक अर्थशास्त्री इसे सही नहीं मानते। उनका कहना है कि खाने पर खर्च और भी कम हो गया है, इसलिए एक तिहाई की इस सीमा को और भी नीचे करना चाहिए।

एक मीडिया रिसर्च में एक चैंकाने वाला तथ्य सामने आया है और वह यह है कि मंदी के बावजूद 1 लाख डॉलर से ज्यादा आय वाले परिवारों की संख्या 2010 में 4 करोड़ 41 लाख थी, जो अब बढ़कर अब 4 करोड़ 42 लाख हो गई है। (संवाद)