आज जरूरत एक सही कानून बनाने की है, जिसके लिए अन्ना हजारे आंदोलन कर रहे हैं और सरकार उस आंदोलन के बावजूद एक प्रभावी कानून बनाने के लिए तैयार नहीं दिखाई दे रही है। इसलिए लालकृष्ण आडवाणी जैसे विपक्षी नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे सरकार पर दबाव डालकर एक प्रभावी और मजबूत लोकपाल कानून संभव बनाएं। उस दबाव के लिए लोगों के बीच घूमने की जरूरत नहीं और न ही भाषणबाजी करने की जरूरत है, बल्कि संसद में सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है।
लालकृष्ण आडवाणी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं। उनकी पार्टी की कई राज्यों में सरकारें हैं। दो राज्यों में उनकी पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा भी है। वे अपनी पार्टी की सरकारों वाले राज्यों में मजबूत लोकायुक्त कानून बनवाकर केन्द्र सरकार पर वैसा ही करने के लिए दबाव बना सकते हैं। उत्तराखंड में उनकी पार्टी की सरकार ने वैसा किया भी है, हालांकि उसमें आडवाणी की अपनी क्या भूमिका रही है, इसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं पता। उत्तरराखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री राजनीतिज्ञों की बीच ईमानदार छवि के माने जाते हैं। कहा जा रहा है कि उन्होंने अपने स्तर पर निर्णय लेकर ही वह कानून बनाया है। यदि उनकी सरकार का वह कानून पार्टी का फैसला होता, तो भाजपा शासित अन्य राज्यों मे भी उस तरह का कानून बनना चाहिए था अथवा कम से कम उसी तरह के कानून बनने की पहल होनी चाहिए थी, पर वह पहल अन्य राज्यों में नदारद दिख रही है। बिहार में भी भाजपा की सहभागिता वाली सरकार है। वहां की सरकार ने उत्तराखंड में बने लोकायुक्त कानून के बाद बने माहौल को खराब कर दिया। बिहार सरकार ने जिस लोकायुक्त कानून के मसौदे को विचार के लिए स्वीकार किया है, वह बेहद ही कमजोर और केन्द्र सरकार द्वारा लोकसभा में पेश लोकपाल विधेयक जैसी ही है। टोके जाने पर बिहार के नीतीश कुमार ने जो तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की, उससे राजनैतिक वर्ग के लोगों के बारे में उसी धारणा को बल मिलता है कि यह वर्ग मजबूत लोकपाल अथवा लोकायुक्त कानून बनाना ही नहीं चाहता है। यह वर्ग सिर्फ भाषणबाजी और बयानबाजी के द्वारा अपने लिए तालियां पिटवाना चाहता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलकर वह अपनी राजनीति साधता है न कि स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त समाज की वह कोई कामना करता है।
अपनी जनचेतना यात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत आग उगली है। दिल्ली के रामलीला मैदान में भी उनका केन्द्र सरकार पर भ्रष्टाचार को लेकर आग उगलने का अभियान जारी रहा। वे आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार को यदि समाप्त होना है, तो सरकार बदलनी चाहिए। जाहिर है उनकी नजर भ्रष्टाचार पर नहीं, बल्कि सरकार पर है। वे सरकार में आना चाहते हैं और उसके लिए भ्रष्टाचार का इस्तेमाल एक मुद्दे के रूप में कर रहे हैं। जो लोग राजनीति में हैं, उनसे उम्मीद भी और क्या की जा सकती है। राजनीति उनके लिए सत्ता का खेल है और इस खेल मे ंशह और मात के लिए वे मुद्दों का इस्तेमाल शतरंज की गोटियों की तरह करते हैं। लालकृष्ण आडवाणी भी यही कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें दोष भी नहीं दिया जाना चाहिए।
पर क्या सरकार बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? कतई नहीं। सरकार बदलने के अबतक के अनुभव तो यही हैं कि इससे भ्रष्टाचार समाप्त नहंी होता, बल्कि शायद कुछ बढ़ऋ ही जाता होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में 1977 में भी सत्ता बदली थी। उस समय कांग्रेस के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी थी। 1974 का बिहार आंदोलन, जो 1977 में कांग्रेस की सरकार को बदलने का कारण बना, भ्रष्टाचार के खिलाफ ही चलाया गया था। लेकिन सरकार बदलने के बाद भी भ्रष्टाचार नहीं समाप्त हुआ था। उस समय मोरारजी देसाई जनता पार्टी की सरकार में प्रधानमंत्री थे। लालकृष्ण आडवाणी भी उनके मंत्रिमंडल में शामिल थे। उन्हें पता होगा कि मोरारजी देसाई के बेटे के खिलाफ किस तरह के आरोप लग रहे थे।
1989 में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के कारण ही कांग्रेस की सरकार बदली थी। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे। बोफोर्स की खरीद में हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा गया था। सरकार बदलने का क्या नतीजा निकला? हम सब जानते हैं कि इसका नतीजा भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी कार्रवाई के रूप में सामने नहीं आया। बोफोर्स के दलालों को सजा दिलाने के नाम पर सरकार बदली, लेकिन किसी दलाल को कुछ भी नहीं हुआ।
यानी सरकार बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होता। भले सत्ता के खेल में होने के कारण लालकृष्ण आडवाणी इस तरह की बात करें, और शायद वे भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सरकार बदलने में भी कामयाब हो जाएं, लेकिन इससे भ्रष्टाचार समाप्त होने वाला नहीं है। सरकार बदलने का असर सिर्फ यही होगा कि नेताओं की बोली बदल जाएगी। आज जिस तरह की बोली लालकृष्ण आडवाणी बोल रहे हैं, उस तरह की बोली कांग्रेस के नेता बोलने लगेंगे और जिस तरह भी बोली आज कांग्रेस नेता बोल रहे हैं, वैसी बयानबाजी भाजपा नेताओं की आने लगेगी। अभी हम देख चुके हैं कि किस तरह बिहार मे ंलोकायुक्त मसले पर नीतीश कुमार उसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कांग्रेस के नेता करते आ रहे हैं। ताली पिटवाने के लिए पहले तो अन्ना की हां में हां मिला रहे थे, लेकिन खुद जब कानून बनाने का समय आया, तो फिर उनके शरीर में कांग्रेस नेताओं की आत्मा समा गई और कहने लगे कि वे जनता के प्रति उत्तरदायी हैं किसी टीम ( अन्ना टीम) के प्रति नहीं। क्या गारंटी है कि देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकृष्ण आडवाणी नीतीश की तरह नहीं बोलेंगे?
स्पष्ट है कि सरकार बदलने से नहीं, बल्कि मजबूत कानून बनने से ही भ्रष्टाचार समाप्त होगा। सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने में आडवाणी की यह यात्रा कितनी कारगर होगी? इसके कारण केन्द्र सरकार कुछ न कुछ तो दबाव में आएगी ही। आखिर वह भी सत्ता में बने रहने की ही राजनीति करती है और बने रहने के लिए वह कानून बनाने की ओर अग्रसर हो सकती है। राजनेताओं में अब लोकलाज की भावना नहीं रही, लेकिन हार का खौफ तो होगा ही। उम्मीद करनी चाहिए भी भाजपा के हाथों हार का खौफ कांग्रेस को एक मजबूत कानून बनाने के लिए बाध्य करेगा। (संवाद)
आडवाणी की जनचेतना रथयात्रा
भ्रष्टाचार विरोधी कानून में कितनी सहायक?
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-11-21 12:56
भाजपा नेता लालकृष्ण भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जनचेतना यात्रा समाप्त करके दिल्ली लौट चुके हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने कितनी चेतना पैदा की, यह तो वही बताएंगे, लेकिन यह भी सच है कि उनकी इस यात्रा के पहले ही लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत चेतना थी। सच कहा जाए, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी चेतना यात्रा की जरूरत ही नहीं थी।