यदुरप्पा ने लोकायुक्त द्वारा खनिज घोटाला में एफआइआर दर्ज किए जाने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उस एफआइआर को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है। उसके बाद से यदुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव बना रहे हैं, लेकिन पार्टी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हो रही है। मुख्यमंत्री क्या, पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने पर भी यदुरप्पा का गुस्सा शांत हो जाएगा, लेकिन पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इसके लिए भी तैयार नहीं हो रहा है।

अपने गुस्से का इजहार करते हुए कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री ने सूरजकुंड में होने वाली भाजपा कार्यकारिणी की बैठक का भी बहिष्कार किया। उन्होेंने सार्वजनिक रूप से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की भी आलोचना की और उनके मसले को सुलझाने के लिए जब भाजपा नेता अरुण जेटली बंगलोर पहुंचे, तो उन्होंने उनसे मिलने से भी इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, कावेरी जल के मसले पर विपक्ष द्वारा आयोजित कर्नाटक बंद में भी उन्होंने हिस्सा लिया।

बी एस यदुरप्पा की धमकियों का पार्टी नेतृत्व पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इसलिए उन्होंने अब अलग से पार्टी बनाने का निर्णय कर लिया है और उन्होंने उस निर्णय की घोषणा भी कर दी है। कुछ दिन पहले पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से झिड़कियां भी मिली थी। श्री गडकरी ने उन्हें साफ साफ शब्दों में कह दिया था कि उनकी दबाव की राजनीति से पार्टी नेतृत्व तंग आ गया है और अब वे जो चाहें कर सकते हैं।

पार्टी बनाने की अपनी मंशा की घोषणा के बावजूद इसके गठन के समय को लेकर यदुरप्पा ढुलमुल रवैया अपना रहे हैं। सबसे पहले उन्होंने कहा कि वे अपने किसी कदम से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की गुजरात में चुनावी संभावना को खराब नहीं करना चाहते हैं, इसलिए वे गुजरात चुनाव के बाद ही पार्टी का गठन करेंगे। गौरतलब है कि गुजरात का चुनाव 20 दिसंबर तक संपन्न हो जाएगा। पर सवाल उठता है कि कर्नाटक की भाजपा की राजनीति का गुजरात के चुनाव पर कोई असर पड़ना ही नहीं है, तो फिर यदुरप्पा को नरेन्द्र मोदी की चिंता क्यों सता रही है।

जाहिर है गुजरात चुनाव के बाद पार्टी के गठन की बात करने में यदुरप्पा की मंशा कुछ और हैं। वे भाजपा के कुछ चुने हुए बड़े नेताओं में से एक हैं, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने की बात सार्वजनिक रूप से की है। इसलिए उन्हें लगता है कि यदि गुजरात चुनाव में जीत के बाद नरेन्द्र मोदी को केन्द्रीय नेतृत्व में कोई बड़ी भूमिका मिलती है अथवा वे पार्टी के अंदर मजबूत होते हैं, तो शायद उन्हें मोदी की सहायता से कर्नाटक भाजपा का अध्यक्ष पद पाने में सफलता हासिल हो जाए।

यदुरप्पा को पता है कि भाजपा में ही बने रहने में ज्यादा फायदा है। इसलिए वह इसे आसानी से छोड़ना नहीं चाहेंगे, लेकिन पार्टी में रहकर वे हाशिए पर भी रहना पसंद नहीं करेंगे। कर्नाटक में भाजपा उन्हीं के नेतृत्व में सत्ता में आई थी। वे संख्याबल में प्रदेश में सबसे ज्यादा मजबूत लिंगायतों के नेता हैं। लिंगायतों के मठों के मठाधीशों का उन्हें जबर्दस्त समर्थन हासिल है। इसलिए यदि वे पार्टी बना लेते हैं, तो वे भले ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकें, पर भाजपा को उनकी नई पार्टी के कारण जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ सकता है। भाजपा केन्द्र में सत्ता में आने के लिए सबकुछ करने का तैयार है। कर्नाटक से ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सांसदों को सुनिश्चित करने के लिए भाजपा को यदुरप्पा को अपने साथ बनाए रखना पड़ेगा। इसी उम्मीद में कनार्टक के मुख्यमंत्री अभी भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद पार्टी उनकी बात मान ले और कम से कम उन्हें प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बना दे।

प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनकर यदुरप्पा टिकट वितरण में अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण बनाए रखना चाहते हैं। जाहिर है, उनकी नजर अब कर्नाटक के आगामी विधानसभा चुनाव के बाद की स्थितियों पर है। यदि कर्नाटक भाजपा के अध्यक्ष के रूप में वे अपनी पसंद के उम्मीदवारों को चुनते हैं और उसके बाद गठित विधानसभा में उनके समर्थक विधायकों की संख्या ज्यादा रहती है, तब वे उस समय मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद पाल सकते हैं।

लेकिन पार्टी के अंदर मनचाहा पद नहीं मिलने के कारण यदि यदुरप्पा अपनी नई पार्टी बनाते हैं और नई पार्टी के विधायकों की संख्या कुछ बेहतर रहती है, तो फिर वे चुनाव के बाद भाजपा अथवा कांग्रेस अथवा देवेगोड़ा की पार्टी के साथ तालमेल बैठाकर खुद सत्ता में आने या किंग मेकर भी भूमिका निभाने की सोच सकते हैं। यही कारण है कि भाजपा के अंदर ताकतवर स्थान नहीं मिलने की स्थिति में वे नई पार्टी बनाने को कृतसंकल्प हैं। (संवाद)