उस समय रूस (तब का सोवियत संघ) भारत का एक प्रमुख व्यापार सहभागी भी हुआ करता था। दोनों देश एक दूसरे की मुद्रा में व्यापार किया करते थे। दोनों के बीच भारी पैमाने पर वस्तु विनिमय प्रणाली से ही व्यापार हुआ करता था। वस्तु विनिमय के बाद जो गैप बचता था, उसका ही भुगतान मुद्रा से किया जाता था। दोनों देशों का व्यापार अमेरिकी डाॅलर का मुहताज नहीं था।

भारत रूसी सामान का एक बड़ा आयातक था। रूस भारत को युद्ध के सामानों की आपूर्ति करता था। भारत पूंजीगत सामनों का आयात भी भारी पैमाने पर करता था। बोकारों और भिलाई के इस्पात संयंत्रों की स्थापना भी भारत ने रूस की मदद से ही की थी। रूस भारत से चाय, चमड़े का सामान, कपड़ा, फार्मास्यूटिकल्स, बिजली के सामान व अन्य उपभोक्ता सामग्रियों का आयात करता था।

सोवियत संघ के पतन के बाद दोनों के संबंधों में बदलाव आ गए। रूस ने उपभोक्ता सामग्रियों के लिए पश्चिम यूरोप की ओर देखना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ भारत ने उस समय ही अपने आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू कर दिए थे। जिस तरह रूस ने पश्चिमी देशों से अपने व्यापारिक संबंध बेहतर करने शुरू कर दिए थे, उसी तरह भारत ने भी पश्चिम की ओर देखना शुरू कर दिया।

जाहिर है, दोनों देशों ने एक दूसरे में दिलचस्पी दिखाना बंद कर दिया था। इसके बावजूद दोनों देशों ने मुक्त व्यापार क्षेत्र के समझौते का प्रस्ताव एक दूसरे के सामने रखा। इसके लिए एक संयुक्त अध्ययन समूह का गठन किया गया और उसके बाद उस समूह ने दिल्ली और मास्को में बातचीत के कई दौर चलाए। लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार बढ़ाने की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई।

एक समय था, जब भारत और रूस के व्यापारिक संबंध बहुत ही व्यापक थे। भारत के बड़े शहरों में रूसी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बड़े बड़े रूसी दफ्तर हुआ करते थे। भारत के कुल आयात का 10 फीसदी अकेले रूस से आता था और भारत अपने कुल निर्यात का 10 फीसदी रूस को करता था। युद्ध की सामग्रियों का आयात तो इन सबसे अलग होता था।

अब भारत के कुल निर्यात से रूस को सिर्फ उसका आधा प्रतिशत ही जाता है। भारत के आयात में रूस का योगदान सिर्फ एक प्रतिशत है। दोनों के व्यापारिक संबंधों में यह बदलाव ऐसे समय में आया है, जब भारत का विदेश व्यापार बहुत ज्यादा बढ़ गया है और रूस का आयात भी बढ़ गया है।

सोवियत संघ के काल में दोनों देशों के बीच रूपये रूबल का समझौता था। उस समझौते की समाप्ति के बाद भारत की रूस की देनदारी बनती थी। दोनों के बीच में समझौता हुआ कि रूसी आयात से उस देनदारी का भुगतान किया जाएगा, लेकिन रूस के आयातकों ने भारत से खरीद में दिलचस्पी नहीं दिखाई और अभी भी भारत की देनदारी समाप्त नहीं हुई है। इसी से पता चलता है कि दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों का स्तर क्या रह गया है। (संवाद)