उत्तर प्रदेश एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में झुलसने को अग्रसर हो रहा है। पिछले फरवरी महीने में संपन्न हुए विधानसभा के आमचुनाव के बाद से सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने वाले अनेक मामले सामने आए हैं। कम से कम 35 बार सांप्रदायिक हिंसा उत्तर प्रदेश को इस दौरान अपने लपेटे में ले चुकी है। एक दर्जन से भी ज्यादा दफा हिंदू मुस्लिम दंगें हुए हैं। अनेक बार एक समुदाय का पुलिस बलों पर हमला हुआ है। इस तरह के हमले और दंगे रूकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? यह सच है कि उत्तर प्रदेश आजादी के बाद से ही सांप्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील प्रांत रहा है। लेकिन पिछले 15 सालों से यहां सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल था। 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था। उसके बाद कुछ समय तक माहौल तनावपूर्ण रहा, पर बाद में स्थिति सामान्य होती चली गई। राज्य के जो इलाके सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात थे, वहां भी शांति बनी रहती थी। चुनाव के पहले माहौल के सांप्रदायिककरण की कोशिश जरूर होती थी, लेकिन वैसी कोशिश विफल हो जाती थी। 1999 के बाद चुनाव के पहले राममंदिर को चुनावी मुद्दा बनाने के सारे प्रयास विफल होते गए। मस्जिदवादी भी अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाए और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति का माहौल कायम रहा।

इस बीच उत्तर प्रदेश में अनेक सरकारें आईं और गईं। बीच बीच में राष्ट्रपति शासन का भी दौर रहा। भाजपा, सपा और बसपा की सरकारें रही। भाजपा और बसपा ने कई बार मिलजुलकर सरकार चलाई। लेकिन कभी भी सांप्रदायिक माहौल प्रदूषित नहीं हुआ। जब मायावती की सरकार थी, उसी समय बाबरी मस्जिद राममंदिर भूमि विवाद को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आया। माना जा रहा था कि फैसला चाहे जो भी हो, उसके आने के बाद प्रदेश में सांप्रदायिकता भड़के बिना नहीं रहेगी। संशयवादी कह रहे थे कि दोनों संप्रदाय अथवा दोनो में से कोई एक उस फैसले को लेकर उत्तेजित हो जाएंगे और माहौल संभालना कठिन हो जाएगा। पर संशयवादी गलत साबित हुए। उच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी माहौल ठीक रहा। उस फैसले को आम तौर पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माना गया, फिर भी मुसलमान उत्तेजित नहीं हुए और लगने लगा कि प्रदेश में अब स्थायी सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल बन गया है, जिसे बिगाड़ा नहीं जा सकता।

पर आज जो हम देख रहे हैं, उससे पता चल रहा है कि अभी भी सांप्रदायिक ताकतें कमजोर नहीं हुई हैं। अभी कुछ दिनों से फैजाबाद में सांप्रदायिक हिंसा हुई। उसके पहले अनेक स्थानों पर इस तरह की हिंसा हुई थी। सवाल उठता है कि आखिर एकाएक उत्तर प्रदेश का माहौल इस तरह सांप्रदायिक कैसे हो गया?

इसका एक बड़ा कारण मुस्लिम मतों के लिए राज्य की तीन पार्टियों के बीच छिड़ी प्रतिस्पर्धा है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस मुस्लिम मतों के लिए आपस में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा कर रही है। विधानसभा चुनाव के पहले मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की हैसियत से मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री को एक के बाद एक पत्र लिखा करती थी, जिसमें वह संविधान संशोधन कर मुसलमानों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने की बात करती थी।

केन्द्र सरकार ने किसी प्रकार का संविधान संशोघन तो नहंीं किया, और न ही सच्चर कमिटी और न ही रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों को लागू किया। उसने पहले से ही आरक्षण पा रहे पिछड़े वर्गो के लोगों को धर्म के आधार पर विभाजित कर डाला। हिंदू पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी में से साढ़े 22 फीसदी का उपकोटा दे दिया गया और गैर हिंदुओं के लिए शेष साढ़े 4 फीसदी का उपकोटा बना दिया गया। केन्द्र सरकार का वह निर्णय गैरकानूनी और असंवैधानिक था। उसे कोर्ट के द्वारा निरस्त तो होना ही था, लेकिन उस निर्णय ने उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता की नई बयार बहा दी। कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्री मुसलमानों के लिए 9 फीसदी आरक्षण की बात करने लगे, तो मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए 18 फीसदी आरक्षण की बात कर दी। ऐसा करके मुसलमानों के सांप्रदायिक अरमानों को जगा दिए गए और उसके कारण उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक माहौल को बिगड़ने का माहौल तैयार कर दिया गया।

चुनाव के बाद अखिलेश यादव की सरकार बनी। उनकी पार्टी की जीत का सांप्रदायिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया और विश्लेषकों ने कहा कि मुलायम की पार्टी की जीत मुस्लिम समर्थन के कारण हुई। मुसलमानों ने भी हिंदुओं की तरह सभी पार्टियों को मत दिए थे। उसने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, पीस पार्टी व अन्य दूसरी पार्टियों को भी अपने मत दिए। यह दूसरी बात थी कि उन्हें ज्यादा जगहों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीतते दिखाई पड़े, इसलिए उन्होंने अपने ज्यादा वोट सपा के उम्मीदवारों को दिए, लेकिन एक गलत विश्लेषण के द्वारा मुलायम की पार्टी की जीत का सारा श्रेय मुसलमानों को ही दे दिया गया। इसके कारण मुसलमानों के अंदर के सांप्रदायिक तत्वों को अपने कारनामों को अंजाम देने का मौका मिल गया। वे पुलिस को अपना निशाना बनाने लगे और पुलिस अधिकारी उनके खिलाफ कार्रवाई करने में डरने लगे। यही कारण है कि उनकी तरफ से शुरू की गई गड़बड़ी के बाद पुलिस तबतक कार्रवाई नहीं करती, जब तक स्थिति उसके नियंत्रण से बाहर नहीं हो जाती। दिल्ली के पास गाजियाबाद में दंगाई घंटों उत्पाद मचाते रहे। पुलिस तथा अन्य गाडि़यों में आग लगाते रहे, पर पुलिस ने कारवाई तभी शुरू की जब पुलिस थाने में ही आग लगाने की कोशिश होने लगी।

जिस तरह से प्रदेश का माहौल खराब हो रहा है, वह यदि बरकरार रहा, तो आने वाले दिनों में स्थिति और भी भयावह रूप ले सकती है। इस बार बाबरी मस्जिद के समय से भी भयानक हिंसा देखने को मिल सकती है, क्योंकि उस समय मंडल का आंदोलन भी चल रहा था और कम से कम मंडल के समर्थकों का सांप्रदायिकीकरण नही ंहो सका था। पर इस बार इस तरह का कोई आंदोलन नहीं है, इसलिए अखिलेश सरकार को चाहिए कि वह किसी भी सांप्रदायिक टकराव को शुरू में ही कुचल देने का स्पष्ट आदेश उत्तर पुलिस को दे। पुलिस की झिझक से दंगाइयों के हौसले बढ़ रहे हैं। (संवाद)