सबसे पहले तो शाहीन के खिलाफ कोई मामला ही नहीं बनता था, क्योंकि उसने आईटी एक्ट के तहत भी किसी तरह का गलत काम नहीं किया था। बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई की जिंदगी ठहर सी गई थी और चारों तरफ बंदी का माहौल था। बंद का किसी ने आह्वान भी नहीं किया था। सभी लोगों ने अपने आप अपने प्रतिष्ठानों को बंद कर रखा था। उस तरह की बंदी को शाहीन ने गलत ठहराया था। उसने यह भी कहा था कि लोगों ने उस तरह की बंदी डर के कारण कर रखी है। इसमें भी गलत नहीं था, क्योंकि व्यापारिक प्रतिष्ठान किसी प्रकार का खतरा मोल नहीं लेता और किसी गडबड़ी की आशंका के कारण लोग अपने अपने प्रतिष्ठान बंद रखते हैं। उस तरह की बंदी यदि किसी को नागवार गुजरे और अपनी झुंझलाहट की कोई सार्वजनिक अभिव्यक्ति करे, तो इससे किसी का कुछ नहीं बिगड़ता और इससे किसी कानून का भी कोई उल्लंघन नहीं होता। फिर भी उस लड़की के खिलाफ फेस बुक पर अपने उस विचार की अभिव्यक्ति के लिए न सिर्फ मुकदमा चला, बल्कि उसे गिर्फतार भी कर लिया गया। उसके उस विचार को उसकी एक दोस्त ने पसंद किया था, तो फिर उसे भी गिरफ्तार कर लिया गया।

इस तरह की गिरफ्तारी कानून के राज का उल्लंघन है और वह उल्लंघन वही लोग कर रहे थे, जिन पर कानून की रक्षा करने का दायित्व है। यदि किसी दबाव में आकर पुलिस ने मुकदमा दर्ज भी कर लिया था, तो दोनों लड़कियों को थाने में ही तत्काल जमानत भी मिल जानी चाहिए थी, क्योंकि कानून की जिस धारा के तहत उसकी गिरफ्तारी हुई थी, उसीमें पुलिस द्वारा ही जमानत दे दिए जाने का प्रावधान भी है। पुलिस ने जज के सामने दोनों लड़कियांे को पेश किया गया और जज साहब ने दोनों को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजने का आदेश भी जारी कर दिया, जबकि उन्हें भी पता होना चाहिए था कि उन पर जमानती धारा के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था। बाद में दोनों लड़कियांे को जमानत पर छोड़ भी दिया गया, लेकिन उसके पहले जो कुछ भी हुआ, वह बेहद ही शर्मनाक और हमारे देश में लोकतंत्र के उड़ते मजाक का उदाहरण था। अभिव्यक्ति की आजादी हमें संविधान ने दी है। संविधान द्वारा तैयार दायरे में हम अपने विचार को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं। हमें यदि लगता है कि किसी संगठन या किसी भी तरह किया गया बंद गलत है, तो हम इसे गलत कहने को स्वतंत्र हैं।

पर पिछले कुछ समय से प्रशासन तंत्र लगातार असहिष्णु होता जा रहा है। आईटी एक्ट के नाम पर तरह तरह के मुकदमे चलाए जा रहे हैं। असमी त्रिवेदी ने इंटरनेट पर ही कुछ कार्टून बनाए थे, तो उस पर देश द्रोह का मुकदमा तक चला दिया गया। उसके कुछ कार्टून निश्चय ही आपत्तिजनक थे, क्योंकि उससे संसद और संविधान का अपमान होता था, लेकिन वैसा करने के लिए देश द्रोह जैसा मुकदमा तो हरगिज नहीं बनता था। बाद में हंगामा होने पर वह मुकदमा वापस भी ले लिया गया। एक अन्य मुकदमा केन्द्रीय वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बेटे से संबंधित है। इंटरनेट पर ही किसी ने चिदंबरम के बेटे पर अपने पिता के पद और रसूख के इस्तेमाल कर काली कमाई करने का आरोप लगा दिया, तो उस पर भी मुकदमा हो गया और पोस्ट लिखने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार भी कर लिया गया। इसका मतलब है कि यदि कोई अपना मुह नहीं खोले और सच को सच मानने से इनकार कर दे। लगता है सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोग ऐसा ही चाहते हैं। सरकार ही नहीं, विपक्ष में बैठा राजनीतिज्ञों का एक बड़ा तबका भी यही चाहता है कि उनके खिलाफ बोलने वालों के मुह में ताला लगा दिया जाय। ऐसा चाहकर वह अपना भी नुकसान कर रहे हैं, क्योंकि यदि लोकतंत्र धराशाई हुआ, तो फिर उन्हें भी जेल की हवा खानी पड़ सकती है।

सच तो यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तेजी से देश में आंदोलन चल रहे हैं, उससे सत्ता में बैठे पक्ष और विपक्ष के लोग बौखला गये हैं। मीडिया का प्रसार अब बहुत ज्यादा हो गया है। प्रसार ही नहीं ज्यादा हुआ है, बल्कि संवाद संप्रेण की गति भी बहुत तेज हो गई है और सूचना के अधिकार कानून ने सरकारी कामकाज की गोपनीयता को भी कुछ हद तक समाप् कर दिया है। इसके कारण भ्रष्टाचार के मामले एक के बाद एक आ रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों ने भ्रष्टाचार और लूट को भी कई गुना बढ़ा दिया है। इसलिए भवन की जिस किसी ईंट को हटाया जाय, भ्रष्टाचार का कीड़ा वहीं खदबदाता दिखाई देता है। और मीडिया आपसी प्रतिद्वंद्विता के दबाव में भ्रष्टाचार की घटनाओं को तरजीह दिए बिना नहीं रह सकता। फिर संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की आजादी सत्तारूढ़ और विपक्षी नेताओं को नागवार गुजरने लगते हैं। और अभिव्यक्ति पर हमला होने लगता है। इंटरनेट पर अभिव्यक्ति और आसान है, क्योंकि वह सबके लिए उपलब्ध है। बिना किसी संपादन के किसी का विचार वहां आ सकता है। सच कहा जाय, तो प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर इंटरनेट मीडिया का भी दबाव पड़ता है और उनके पास खबरों को दबाने की गुंजायश कम बच गई है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को तो बहुत संरक्षण प्राप्त है, लेकिन इंटरनेट मीडिया पर अपने विचार व्यक्त करने वाले लोगों पर आईटी एक्ट की एक तलवार लटका दी गई है, जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा है। यदि सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोग इसी तरह असहिष्णु होते रहे, तो आने वाले दिनों में इस एक्ट के और भी दुरुपयोग की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि इस काले आईटी कानून को रद्द किया जाय। जिन कानूनों से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया अनुशासित होते हैं, उन्हीं कानूनों के तहत इंटरनेट मीडिया पर की गई अभिव्यक्ति की आजादी को अनुशासित किया जाय। यह क्या बात हुई कि यदि किसी अखबार ने किसी की आलोचना करते हुए कोई एक संपादकीय लिख दिया, तो वह तो सुुरक्षित है, पर यदि किसी ने उसी व्यक्ति के खिलाफ इंटरनेट पर एक वाक्य लिख दिया, तो उसे जेल भेज दिया जाय। संचार और संवाद के नये माध्यमों का इस्तेमाल लोकतंत्र को और मजबूत करने के लिए किया जाना चाहिए। यदि वहां अभिव्यक्ति की आजादी रोकी गई, तो इससे लोकतंत्र का ही नुकसान होगा। (संवाद)