संसदीय लोकतंत्र के भारतीय संस्करण में दलों का मूल्यांकन मुख्य रुप से चुनाव के दौरान प्रदर्शनों पर आधारित हो चुका है। कोई व्यक्ति अगर केवल संगठन तक सिमटा रहे और चुनाव के लिए उम्मीदवार चयन से लेकर अन्य अभियानों में उसकी भूमिका नही तो वह अंततः संगठन में भी महत्वहीन हो जाएगा। इसलिए मुख्य महत्व चुनाव के लिए उम्मीदवार से लेकर रणनीति आदि बनाने में सर्वप्रमुख भूमिका निभाने वाले का ही है। वैसे संगठन में भी महासचिव की जिम्मेवारी उनकी है ही। इसे हम राहुल के शीर्षतम नेता की ओर प्रयाण की सबसे ऊंची छलांग मानें तो फिर आने वाले समय में संगठन के फेरबदल में भी उनका प्रभाव दिखेगा। इस तरह सोनिया गांधी के बाद वे संगठन में दूसरे क्रमांक के नेता होंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि अगला लोकसभा चुनाव जब भी हो, कांग्रेस का नेतृत्व राहुल गांधी ही करेंगे।

यह आम धारणा है कि कांग्रेस के अंदर राहुल जो चाहंे वह नहीं हो यह स्थिति तो पहले भी नहीं थी। लेकिन औपचारिक रूप से वे युवा कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन और सेवा दल का ही काम देखते थे और अन्य मामलों में वे सामान्यतः हस्तक्षेप करने से बचते थे। अब औपचारिक रूप से स्थिति बदल गई है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे अपने को व्यवस्थित, चुस्त और एक तंत्र के रुप में पूर्ण सक्रिय बनाए रखने के लिए सुनियोजित रणनीति के तहत अग्रसर है। पहले संगठन और सरकार के बीच मतभेद की बातें आतीं थीं। यह संदेश दिया जा रहा है और इसे साकार दिखाया भी जा रहा है कि सरकार एवं संगठन दोनों के बीच सम्पूर्ण समन्वय व एकता है। रामलीला मैदान में 4 नवंबर को महारैली करके सरकार की नीतियों का पूरा समर्थन तथा लोगों से उसके पक्ष में एवं विपक्ष के विरुद्ध माहौल बनाने का आह्वान, फिर 9 नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी सरकार संवाद और उसमें सोनिया गांधी द्वारा एक समन्वय समिति तथा उसके अंदर तीन उपसमितियां बनाने की घोषणा एवं 15 नवंबर को उसका क्रियान्वयन और आगे चिंतन शिविर की योजना...। इन सबमें सुनियोजित क्रमबद्धता दिखती है। प्रधानमंत्री ने पहले सारे सहयोगियांे को भोजन पर बुलाया और बाद मंे विपक्ष को भी, पर बालासाहब ठाकरे के निधन के कारण भाजपा के साथ भोज रद्द करना पड़ा। यह इस बात का संकेत है कि संसद के अंदर भी सरकार अपने प्रबंधन को चुस्त कर रही है एवं विपक्ष के साथ आर्थिक कदमों पर संवाद करके रास्ता निकालने की कोशिश। आगे पार्टी का चिंतन शिविर आयोजित हो रहा है।

तो राहुल गांधी को इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी देने के साथ सरकार एवं संगठन दोनों स्तरों पर बिल्कुल बदली हुई और व्यवस्थित सजग, सक्रिय तंत्र का आधार देने की कोशिश है। इस मायने में राहुल को शीर्ष पर लाने का यह कदम ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। जो तीन समितियां बनी हैं उनमें कुल 27 नेता हैं जिनमें 11 केन्द्र में मंत्री है। इनमें केवल छः नेता ऐसे हैं जिनकी उम्र 50 वर्ष से कम है। यानी यह अपेक्षाकृत युवाओं की टीम नहीं है। अगर राहुल को पूरी पार्टी का संगठन एवं सरकार के स्तर पर नेतृत्व करना है तो उन्हें बुजूर्ग एवं युवा दोनों के बीच समन्वय बनाना होगा। इसलिए यह टीम अनुभव, विश्वसनीयता, उम्र, छवि आदि की दृष्टि से कंाग्रेस की संतुलित मानी जा रही है। सोनिया एवं राहुल के विश्वसनीय रणनीतिकारों ने सरकार एवं संगठन के अत्यंत कुशल और जिम्मेवार लोगों को इन समितियों में जगह दी है। जरा समितियों को देखिए। शीर्ष चुनाव समन्वय समिति में राहुल के साथ अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, मधुसूदन मिस्त्री और जयराम रमेश हैं तो चुनाव पूर्व सहयोगी तलाशने की उपसमिति के अध्यक्ष ए के एंटनी हैं और इसमें वीरप्पा मोइली, मुकुल वासनिक, सुरेश पचैरी, जितेंद्र सिंह और मोहन प्रकाश है। घोषणा पत्र उप समिति के प्रमुख भी एंटनी हैं और इसमें पी चिंदबरम, सुशील कुमार शिंदे ,आनंद शर्मा, सलमान खुर्शीद, संदीप दीक्षित, अजीत जोगी, रेणुका चैघरी, पीएल पूनिया, मोहन गोपाल हैं। प्रचार की उपसमिति मेें दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी, मनीष तिवारी, दीपेंद्र हुडा, राजीव शुक्ला एवं भक्त चरणदास है। ये नाम सरकार एवं पार्टी दोनों में काफी बड़े हैं और 10 जनपथ के प्रति इनकी वफादारी में शायद ही किसी को संदेह हो। प्रधानमंत्री को छोड़कर गृह मंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, वाणिज्य मंत्री, कानून मंत्री, कंपनी मामलों के मंत्री, सूचना और प्रसरण मंत्री...जैसे ज्यादातर महत्वपूर्ण मंत्री इसमें हंैं। इस तरह अनेक महत्वपूर्ण मंत्री सरकार से बाहर ही सही राहुल के नेतृत्व में काम कर रहे हैं। अब सरकार एवं पार्टी में प्रणब मुखर्जी के स्थान की ओर ए. के. एंटनी बढ़ रहे हैं। जो नाम दिखाई नहीं पड़ रहे हैं वे संगठन की पुनर्रचना एवं अन्य योजनओं में अवश्य शामिल होंगे।

राहुल की अगुआई में बनी लोकसभा चुनाव समन्वय समिति काम कैसे करेगी, उसका फोकस क्या होगा, इस पर समिति के कुछ सदस्यों की राय देखिए- दिग्विजय सिंह ने कहा कि पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में जोर-शोर से आम चुनाव की तैयारी में जुट गई है। मुख्य समन्वय समिति के जयराम रमेश ने कहा कि समिति पार्टी की नीति निर्धारक टीम की तरह काम करेगी। चुनाव से पहले कई योजनाओं को अमली जामा पहनाना है जिससे आम आदमी के हित सीधे जुड़े हैं। गठबंधन तथा घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष एंटनी ने कहा कि चुनाव पूर्व गठबंधन ही अगली राजनीति की दिशा तय करेगा। हमारा फोकस मौजूदा साथियों को भरोसे में रखने के साथ नए साथी तलाशने पर होगा। नीतियों और कार्यक्रमों के अलावा चुनाव घोषणापत्र के लिए काम करना भी चुनौतीपूर्ण होगा। चुनाव घोषणा पत्र और सरकार की योजनाओं से संबंधित समिति के सदस्य सुशील शिंदे के अनुसार सरकार के कामों को आम लोगों तक पहुंचाने पर फोकस रखना होगा। प्रचार समिति के सदस्य सूचना-प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के शब्दों में पार्टी की नीतियों को आम लोगों तक बेहतर और सरल तरीके से पहुंचाने के नए तरीके तलाशना सबसे जरुरी है। इसी समिति के सदस्य दीपेंद्र हुड्डा विपक्ष के दुष्प्रचार की काट प्रस्तुत करने पर फोकस करने की बात करते हैं। जाहिर है, गठबंधन, रणनीति, घोषणा, प्रचार, विपक्ष की काट आदि सारे अपरिहार्य विषयों पर अलग-अलग टीमों ने काम आरंभ कर दिया है और इनका संयोजन केवल राहुल गांधी के नेतृत्व मंे होगा। यानी किस मोर्चे पर क्या हो रहा है इसकी पूरी सूचना राहुल के पास होगी, वे उसमें अपनी सलाह या मार्ग निर्देश भी दे सकते हैं।

इस तरह राहुल को काम करने के लिए अपने विषयों पर फोकस कर परिणाम देने वाली ऐसी टीम मिल गई हैं जिनमें वे नेता भी हैं जो आवश्यकता के अनुसार उन्हें किस स्थिति मंे और क्या होना या करना चाहिए यह भी सलाह देंगे तथा बाहर उनकी महिमा बनाए रखने के प्रचार में सक्रिय होंगे। इस तरह कांग्रेस ने भविष्य के अपने नेता की ताजपोशी की आधारभूमि बना दी है और यदि पार्टी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सरकार बनाने की स्थिति आती है तो राहुल गांधी मनमोहन सिंह का स्थान ले लेंगे। किंतु यह आसान नहीं है। अभी कई राज्यों के चुनाव होने हैं और पार्टी तथा राहुल को वहां बेहतर प्रदर्शन करना होगा। ऐसा नहीं होने से संदेश भी अच्छा नहंीं जाएगा एवं जनमानस पर नकारात्मक असर होगा। भ्रष्टाचार और महंगाई की मार विपक्ष के हाथों ऐसा हथियार है जिनसे कांग्रेस लगातार वार झेल रही है। इसकी काट केवल शब्दों से जवाब देने भर से नहीं होगा, सरकार को स्थिति में बदलाव लाना होगा। मसलन, महंगाई घटे, लोगों की परेशानियां कम हों तथा उन्हें यह अहसास हो जाए कि सरकार एवं कांग्रेस दोनों भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल को प्रधानमंत्री बनाने का सपना धरा रह जाएगा। साथ ही जिन राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में संगठन कमजोर हैं वहां उसे मजबूत बनाने के लिए भी काम करना होगा। उ. प्र., बिहार, पंजाब... में राहुल का करिश्मा सफल नहीं रहा। यह बात उनके समर्थक रणनीतिकार एवं वे भी जानते हैं कि केवल नेहरु, इंदिरा परिवार का नाम चुनावी बेड़ा पार नहीं लगा सकता। सरकार का काम और संगठन की शक्ति दोनों के संतुलन से ही ऐसा संभव है। (संवाद)