बाल ठाकरे की सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारण उनकी व्यापक अपील और भाषण की शैली थी, जो बहुत ही ताकतवर थी। पिछले कुछ समय से बाल ठाकरे का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था और वे सेना के लिए ज्यादा समय भी नहीं दे पा रहे थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में तो उन्होंने प्रचार तक नहीं किया था। उन्होंने अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को सेना का कार्यकारी अध्यक्ष मनोनित कर दिया था और सभी बड़े निर्णय वही लिया करते थे। पर उद्धव में बाल ठाकरे जैसी नेतृत्व क्षमता नहीं है और लोगों के बीच उनकी वैसी अपील भी नहीं है।

सच कहा जाय तो शिवसेना में बाल ठाकरे के जीवन काल में ही क्षरण होने लगा था। सेना को असली चुनौती बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से मिल रही थी। बाल ठाकरे के दो प्रबल समर्थकों- छगन भुजबल और नारायण राणे ने पार्टी छोड़ दी थी। दोनों को पता चल गया था कि सेना में उनका कोई भविष्य नहीं है। इसी तरह का अहसास भतीजे राज ठाकरे को भी हुआ और उन्होंने भी सेना छोड़ दी। जहां छगन भुजबल शरद पवार की पार्टी और श्री राणे कांग्रेस से जुड़े वहीं राज ठाकरे ने शिव सेना के समानांतर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया। इनके बाहर जाने के बाद सेना निश्चय रूप से कमजोर हुई है।

राज ठाकरे सेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं। उन्होंने तो खुद बाल ठाकरे को ही चुनौती दे डाली थी, उद्धव ठाकरे तो उनके सामने कुछ नहीं हैं। अभी यह कयास लगाया जा रहा है कि क्या दोनों भाई फिर से एक साथ हो पाएंगे या दोनों के बीच कलह जारी रहेगी। यदि दोनों के बीच कलह जारी रही, तो उसकी भारी कीमत शिवसेना को आने वाले दिनों में चुकानी पड़ सकती है।

शिवसेना के भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन के 25 साल पूरे होने जा रहा हैं। 2009 तक तो दोनों के बीच गठबंधन में शिवसेना का हाथ ऊपर रहा करता था, पर अब स्थिति बदल रही है और भारतीय जनता पार्टी अपना हाथ ऊपर रखना चाहती है। बाला साहब के निधन के बाद अब शिवसेना भाजपा के सामने और कमजोर रूप में खड़ी दिखाई पड़ेगी, क्योंकि अब उसके पास राज ठाकरे की सेना के साथ भी समझौता करने का विकल्प मौजूद है। भाजपा शिवसेना से कह सकती है कि राज ठाकरे के साथ भी वह समझौते मंे शामिल हो। उद्धव के लिए राज ठाकरे को राजग में पचाना आसान नहीं होगा और विभाजित रूप में दो सेनाओं अपने आपको भाजपा के सामने बेहद कमजोर पाएंगी।

शिवसेना के सामने अपने समर्थकों को बचाए रखने की चुनौती भी है। बाला साहब का नेतृत्व स्वीकारने वाले सभी नेता और कार्यकत्र्ता उद्धव का नेतृत्व भी स्वीकार कर लें, यह कोई जरूरी नहीं है। उनके सामने एक विकल्प राज ठाकरे की सेना भी है। सबसे बड़ी बात है कि बाल ठाकरे के समर्थक अपनी ताकत को बंटा देखना नहीं चाहेंगे। राज ठाकरे के साथ जो लोग पहले से ही शिवसेना छोड़कर आ चुके हैं, वे वापस सेना में जाने से रहे, लेकिन शिवसेना के और लोग राज ठाकरे की पार्टी में शामिल होने को सोच सकते हैं।

बाल ठाकरे की जो राजनीति रही है, उसे आगे बढ़ाने की कला में राज ठाकरे ने उद्धव की तुलना में ज्यादा महारत हासिल कर रखी है। बाला साहब की राजनीति मुख्यतः क्षेत्रीयतावाद पर आधारित थी, जिस हिंदुत्व का पुट भी मिला दिया गया था। वह मराठा संस्कृति और भाषा की राजनीति करते थे और बीच बीच में पाकिस्तान विरोध की राजनीति भी करते रहते थे। इन दोनो तरह की राजनीति करने में राज ठाकरे ने अपने आपको उद्धव से आगे कर रखा है। (संवाद)