पिछले साल उनसे जब पूछा गया था कि वे इस तरह आंदोलन करने की बजाय खुद क्यों नहीं चुनाव जीत कर सरकार बनाते हैं और सरकार बनाकर जन लोकपाल बनाते हैं, तो उनका कहना था कि वे चुनाव जीत ही नहीं सकते, क्यांेकि चुनाव में बहुत पैसा खर्च होता है और वोट खरीदे जाते हैं, जो उनके वश का नहीं है।
संभवतः यही कारण है कि अन्ना हजारे ने इस आम आदमी पार्टी से अपने को दूर रखा है। यह पार्टी खुद अन्ना आंदोलन की उपज है। आजादी के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन पिछले साल अगस्त महीने में देश में हो रहा था, पर देश का राजनैतिक वर्ग उस बड़े आंदोलन के सामने भी नहीं झुका और उसकी मांग को नकार दिया गया। अन्ना के अनशन को तुड़वाने के लिए संसद से एक ऐसा प्रस्ताव पास करवा दिया गया, जिस पर उनके द्वारा अमल ही नहीं होना था। आंदोलन की मांग यदि सरकार नहीं माने, तो फिर आखिर किया ही क्या जा सकता है? भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां चुनाव होते रहते हैं और इस तरह जनता को मौका मिलता रहता है कि वे चाहें तो मतदान से सरकार बदल दें। वे सरकार को बदल भी देते हैं, लेकिन जब पूरा राजनैतिक वर्ग ही एक रंग से रंगा हुआ हो, तो सरकार बदलने से कोई फायदा नहीं होता। सब कुछ यथावत चलता रहता है।
इसलिए अन्ना आंदोलन के सामने एक राजनैतिक संगठन में तब्दील होने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प था ही नहीं। आंदोलन ने इसी विकल्प को स्वीकार किया, पर खुद अन्ना इसमें शामिल नहीं हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें लगता है कि वर्तमान राजनैतिक परिवेश में उनके जैसा आदमी चुनावी राजनीति के लिए फिट नहीं है। केजरीवाल के नेतृत्व में बनी इस पार्टी का विफलता का ठीकरा कहीं अन्ना के सिर पर भी नहीं फूटे, इसीलिए अन्ना ने अपने आपको इससे पूरी तरह अलग कर रखा है और अपने नाम व पोस्टर के इस्तेमाल की इजाजत तक अपने आंदोलनकारी सहयोगियों को नहीं दी है।
जिस तरह अन्ना सोचते हैं, ठीक उसी तरह देश के मौजूदा राजनैतिक पार्टियों के नेता भी सोचते हैं। उन्हें भी लगता है कि नवगठित आम आदमी पार्टी का भविष्य नहीं है। जब अन्ना के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा था, तो उसकी सफलता का एक कारण यह भी था कि अनेक विरोधी पार्टियांे के नेता चुपचाप और कार्यकत्र्ता खुले आम इसका समर्थन कर रहे है। लेकिन जब आंदोलन का एक बड़ा हिस्सा खुद एक राजनैतिक पार्टी में तब्दील हो गया, तो फिर अन्य पार्टियों की ओर से अरविंद और उनकी पार्टी को सहयोग मिलना तो दूर, उनकी ओर से उनका काफी प्रतिरोध होना शुरू हो गया है।
जाहिर है, पार्टी के रूप में आंदोलन के तब्दील होने के बाद अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को अब उन लोगों के हमले का भी सामना करना पड़ेगा, जो आंदोलन के समय उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे। इतना ही नहीं, भारत की जाति और सांप्रदायिक राजनीति का मुकाबला भी उन्हें करना पड़ेगा।
भारतीय लोकतंत्र में बहुदलीय व्यवस्था है, लेकिन बहुदलीयता की यह व्यवस्था तकनीकी है। व्यवहार में भारतीय राजनीति जाति से संचालित होती है और इसके अतिरिक्त इसमें सांप्रदायिकता का भी सहारा लिया जाता है। इसके कारण अनेक जातिवादी और सांप्रदायिक नेता अस्तित्व में आ गए हैं, जो देश की राजनीति को प्रभावित करते रहते हैं। वे चुनाव तो लड़ते हैं किसी पार्टी से, लेकिन समर्थन और मतदाताओं की गोलबंदी जाति और सांप्रदायिकता के आधार पर होती है। जाति के कारण ही देश की दलीय व्यवस्था ने अपना दम तोड़ दिया है। जाति के कारण वैचारिक पार्टियां अपना विस्तार नहीं कर पातीं और अनेक बार तो वे अपना अस्तित्व भी नहीं बचा पाती। वैसे माहौल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हुए पैदा हुई आम पार्टी के के भविष्य के बारे में यदि बहुत लोग संदेह व्यक्त करते हैं, तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है।
इसके बावजूद आम आदमी पार्टी को हल्के में लेना गलत और जल्दबाजी भी होगा। इसका कारण यह है कि देश में आज भयानक संकट का दौर चल रहा है। भ्रष्टाचार ने देश के सामूहिक मनस को हिला कर रख दिया है। जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति का नजारा भी लोग देख रहे हैं। इस तरह की राजनीति ने भ्रष्ट और भाई भतीजावाद में लिप्त राजनेताओं को पैदा किया है। उस तरह के जातिवादी नेताओं से उनकी जातियों के लोगों का मोहभंग भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त अब शहरीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई है और देश की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा शहरीकृत हो गया है। शहरीकरण भी जाति को कमजोर कर रहा है और बढ़ता उपभोक्तावाद भी अंततः जाति के खिलाफ ही जाएगा। इसलिए यह कहना कि यदि अब तक भारतीय राजनीति जाति से संचालित हो रही है, तो यह आगे भी इसी से संचालित होती रहेगी, गलत है।
वैसे अन्ना हजारे की क्षत्रछाया से अलग होकर अरविंद केजरीवाल ने अपनी अलग से एक छवि बना ली है। वे आज भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला रहे तीन बड़ी हस्तियों में से एक हैं। अन्ना हजारे और रामदेव दो अन्य भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाली बड़ी आवाज है। अन्ना का साथ हटने के बाद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार से जुड़े एक से बड़े एक खुलासे किए हैं, जिनके कारण उन पर लगने वाले अनेक आरोप मिट्टी में मिल गए हैं। पार्टी बनाने की घोषणा के बाद भाजपा उन्हें कांग्रेस का एजेंट कहने लगी थी, क्योंकि अगले चुनाव में अपनी सरकार को भाजपा बनती देख रही थी और उसे लगा कि केजरीवाल हमारा बनता हुए खेल बिगाड़ देगा। सोनिया गांधी के दामाद राॅबर्ट भद्र के भ्रष्टाचार को उजागर कर उन्होंने अपने ऊपर कांग्रेस एजेंट होने के लगे आरोप का मजाक उड़ा दिया है। कांग्रेस की ओर से उनपर भाजपा का एजेंट होने का आरोप लग रहा था। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कांग्रेस व एनसीपी के नेताओं के साथ सांठगांठ को साबित कर उन्होंने उस आरोप को भी प्रभावशाली तरीके से झूठा करार दिया है।
आम आदमी पार्टी अपना पहला चुनाव दिल्ली विधानसभा के लिए लड़ेग, जो अगले साल नवंबर महीने में होने है। इस पार्टी के लिए दिल्ली सबसे अनुकूल जगह है, क्योंकि भ्रष्टाचार के आंदोलनों का केन्द्र यही रहा है और यहां की राजनीति पर जाति का साया भी कमजोर है। भाजपा और कांग्रेस ही यहां की दो मुख्य पार्टियां हैं और दोनों की प्रकृति लगभग एक ही है। एक को हराने के लिए लोग दूसरे को जिता देते हैं। इसलिए किसी दमदार तीसरी पार्टी के लिए यहां जगह पहले से ही मौजूद है। केजरीवाल ने बिजली की बढ़ी दरों के खिलाफ आंदोलन चलाकर अपनी पार्टी को यहां स्थापित करने का काम गठन के पहले ही कर दिया था। यदि अन्ना हजारे चुनाव के दौरान प्रचार के लिए आ जाते हैं, तो आम आदमी पार्टी की सफलता के आसार और भी बढ़ जाएंगे। अन्ना द्वारा इस पार्टी के समर्थन की संभावना से इनकार नही किया जा सकता, क्योंकि वे इस तरह के संकेत बीच बीच मे देते भी रहते हैं। जो भी हो, दिल्ली विधानसभा का चुनाव तय करेगा कि आम आदमी पार्टी का कोई भविष्य है भी या नहीं। (संवाद)
क्या आम आदमी पार्टी कुछ कर पाएगी?
दिल्ली विधानसभा के चुनाव इसका भविष्य तय करेंगे
उपेन्द्र प्रसाद - 2012-11-28 11:01
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में एक नई राजनैतिक पार्टी का गठन पिछले 26 नवंबर को हुआ और इसके गठन के साथ यह सवाल पूछा जा रहा है कि इसका भविष्य क्या है। आम आदमी पार्टी के नाम से बनी इस पार्टी के भविष्य को लेकर जो लोग आशान्वित नहीं हैं, उनमें शायद अन्ना हजारे भी एक हैं।