अंतरराष्ट्रीय मीडिया में म्यान्मार में चल रहे नागरिकता पहचानो अभियान की खबरें लगातार आ रही हैं। वह अभियान बर्मा के पुराने कानून के तहत ही चलाया जा रहा है और उन्हें म्यान्मार का नागरिक माना जा रहा है, जो 1948 के पहले से म्यान्मार के इलाके में रह रहे हैं।

लेकिन इस अभियान से 10 लाख की आबादी वाले उन रोहिंग्या मुसलमानों को कोई राहत मिलती नहीं दिखाई दे रही है, जो बहुसंख्यक बौद्धों के हमलों का शिकार हो रहे हैं और जिन के ऊपर प्रशासन की मार भी पड़ रही है। उनमें से बहुत कम लोगों के पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज उपलब्ध हैं। वहां का प्रशासन उनके खिलाफ पूर्वाग्रह से हमेशा ग्रस्त रहा है। इसके कारण उन्हें नागरिकता के दस्तावेज दिए ही नहीं गए हैं।

यह सर्वे म्यान्मार के राष्ट्रपति थेन सेन की उस घोषणा के बाद शुरू हुआ जिसमें कहा गया था कि रोहिंग्या से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए उपाय किए जाएंगे। वह घोषणा भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के तहत की गई थी। गौरतलब हो कि बर्मा के अधिकारी मानते हैं कि सभी रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश के निवासी हैं।

लेकिन अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों का मानना है कि जिस तरह से वहां सर्वे चल रहा है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि रोहिंग्या मुसलमानों को वहां न्याय मिल पाएगा। जिन रोहिंग्या मुसलमानों से फाॅर्म भरवाए जा रहे हैं, उनमें पहले से ही अधिकारी उनकी मातृभाषा की जगह बंगाली लिख देते हैं और उनके मजहब वाले खाने में मुसलमान लिख डालते हैं। यदि उनके बारे में पहले से ही इस तरह की जानकारी भरी जा रही है, तो इससे उन्हें यह साबित करना असभंव हो जाएगा कि वे बर्मा के नागरिक हैं।

म्यान्मार का मानना है कि वे रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और वे इस्लामी आतंकवादी संगठनों से जुड़े हुए हैं। कुछ रोहिंग्या नेताओं ने बर्मा के अंदर अपने लिए एक अलग से स्वायत्त प्रदेश की मांग तक कर डाली है और इस मांग के कारण वे सरकार व वहां के नागरिकों की आंखों में चुभ रहे हैं।

अभी जो स्थिति है, उससे यही लग रहा है कि बहुत कम रोहिंग्या मुसलमान ही यह साबित कर पाएंगे कि 1948 के पहले से वहां रह रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया में सबसे ज्यादा भेदभाव के शिकार उस समुदाय की स्थिति में फिलहाल बदलाव आने की संभावना नहीं है। अभी तो हाल यह है कि वे बांग्लादेश से म्यान्मार के बीच शटल कर रहे हैं और दोनों देशों में से कोई भी उन्हें अपना मानने को तैयार नहीं है।

बांग्लादेश और रोहिंग्या को अपनी भूमि पर लेने का तैयार नहंीं है। उसकी जमीन पर पहले से ही ढाई लाख रोहिंग्या रह रहे हैं। उनमें से 30 हजार तो कोक्स बाजार के टेंट से बने कैंपों में रह रहे हैं। सरकार का कहना है कि बांग्लादेश दुनिया की सबसे घनी आबादी वाला देश है और गरीब भी है।

सच तो यह है कि दुनिया के अन्य देशों को रोहिंग्या मुसलमानों के बारें में ज्यादा करना और सोचना चाहिए, लेकिन वे इससे ज्यादा बांग्लादेश सरकार को कोसने में लगी हुई है। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ बांग्लादेश को कहते हैं कि बर्मा से खदेड़े जा रहे रोहिंग्या मुसलमानों के लिए वह अपने दरवाजे बंद नहीं करे।

बांग्लादेश के मानवाधिकारवादी संगठनों ने भी ढाका सरकार का ही समर्थन किया है। बांग्लादेश राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष डाॅक्टर मिजनौर रहमान का कहना है कि देशों के बीच आपसी अविश्वास ने रोहिंग्या समस्या के हल में बाधा पहुंचाई है। वे महसूस करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय और मानवाधिकावादी संगठनों को कुछ ऐसे उपाय सुनिश्चित करना चाहिए, जो उनकी समस्या को हल करने में ठोस दिशा पकड़ सके।(संवाद)