दोनों एक साथ मिलकर विपक्ष द्वारा लाए गए प्रस्ताव को गिराने का काम कर रहे थे, ताकि सरकार की फजीहत नहीं हो। उन दोनों ने मिलकर सरकार को फजीहत का सामना करने से बचा भी लिया। उनके लिए मनमोहन सिंह को फजीहत से बचाना विदेशी किराने को देश में आने से रोकने से ज्यादा महत्वपूर्ण था।
दोनों पार्टियां केन्द्र की सरकार को बचाने का तर्क दे रही थी, ताकि भारतीय जनता पार्टी उसकी जगह सत्ता में न आ जाए। दोनों अपने आपको सेकुरिज्म का समर्थक बता रही थीं। भले ही बात विदेशी किराना को भारत में आने से रोकने की हो रही हो, लेकिन ये दोनों पार्टियां लगातार संप्रदायवाद और धर्मनिरपेक्षता की बात ही करती रहीं।
भारतीय जनता पार्टी ही सदन में विदेशी किराना की चर्चा की मांग सबसे ज्यादा कर रही थी। चर्चा के बाद मतदान हो इसके लिए भी उसी ने जिद कर रखी थी। उसकी जिद के कारण सदन में कई दिनों तक काम नहीं हो सके। अंत में सरकार ने चर्चा करवा दी और मतदान भी करवा दिया। सपा व बसपा की सहायता से उसने संसद का मतदान भी जीत लिया। सवाल उठता है कि आखिर भाजपा को क्या हासिल हुआ?
केन्द्र सरकार द्वारा विदेशी निवेश को किराना सेक्टर में आमंत्रित करने का फैसला एक कार्यकारी फैसला था। इस पर संसद में बहस की कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि बहस तो काूनन बनाने के लिए की जाती है और किराना सेक्टर में विदेशी निवेश को संभव बनाने के लिए केन्द्र सरकार को किसी प्रकार के कानून बनाने की जरूरत ही नहीं थी। सिर्फ एक कार्यकारी फैसला करना था, जो उसने किया था। पर उस फैसले पर संसद में बहस करवाई गई और उसके बाद मतदान भी करवाया गया।
भाजपा को कुछ भी हासिल नहंीं हुआ। अब भाजपा को सोचना चाहिए कि उसकी वह जिद अपरिपक्व थी। इससे पता चलता है कि भाजपा के नेतृत्व के पास राजनैतिक परिपक्वता की भी कमी हो गई है। उस परिपक्वता के कारण कांग्रेस को लाभ हो रहा है और नुकसान यदि किसी को हो रहा है, तो वह खुद भाजपा का ही हो रहा है। आज पार्टी को एक परिपक्व नेतृत्व की जरूरत है।
यह कोई पहला मौका नहीं था। इसके पहले भी भाजपा ने अनेक बार संसद के सदनों को चलने नहीं दिया है। पिछला सत्र तो पूरी तरह खाली चला गया था। भाजपा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कोयला घोटाले के लिए इस्तीफा मांगने पर अड़ी हुई थी। उसका कहना था कि घोटाले के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रत्यक्ष तौर से जिम्मेदार हैं और उसने घोषणा कर रखी थी कि जबतक प्रधानमंत्री का इस्तीफा नहीं होगा, वे संसद को चलने नहीं देंगे। पिछला मानसून सत्र भाजपा की उसी जिद का शिकार हो गया।
इस सत्र को भी भाजपा चलने नहीं दे रही थी। वह चाहती थी कि बहस हो और उसके बाद मतदान हो। उसे लगता था कि मतदान के बाद कांग्रेस अपने आपको शर्मसार महसूस करेगी, क्योंकि मतदान में वह पिछड़ जाएगी। कांग्रेस तो शर्मसार हुई नहीं, उल्टे भाजपा को ही मुह की खानी पड़ी, क्योंकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने उसकी उम्मीदों के विपरीत जाकर केन्द्र सरकार का ही साथ दिया।
बहस से भी कुछ नहीं निकला। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने आरोप लगाया कि भारत में अपना व्यापार कर रही विदेशी खाद्य कंपनियां स्थानीय आलू खरीदने की जगह दूसरे देशों से आलू का आयात कर रही हैं। उनके इस आरोप का युवा कांग्रेसी सांसद दीपेन्द्रर सिंह हुडा ने विरोध किया और कहा कि इन कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किए गए आलू में से आधे की खरीद तो अकेले गुजरात से हुई है।
वामपंथी दल तो एक ऐसी विचारधारा के शिकार हैं, जो न केवल पुरानी हो चुकी है, बल्कि वह अप्रासंगिक भी हो गई है। वे आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का लगातार विरोध कर रहे हैं। वे भारत के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने का भी विरोध कर रहे थे और अमेरिका के साथ भारत के हुए परमाणु करार का भी। उसी तरह वे किराना सेक्टर में विदेशी निवेश का भी विरोध कर रहे हैं।
मायावती और मुलायम सिंह का समर्थन केन्द्र सरकार के लिए वरदान साबित हुआ। उन दोनों को सरकार के पक्ष में लाने की यदि किसी ने बड़ी भूमिका निभाई तो वह केन्द्रीय संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ थे। (संवाद)
अर्थशास्त्र ने नहीं, बल्कि राजनीति ने कांग्रेस को बचाया
कमलनाथ ने निभाई मुख्य भूमिका
हरिहर स्वरूप - 2012-12-10 11:17
राजनीति इस मामले में विचित्र है कि यह एक दूसरे के विरोधियों को भी एक साथ ला खड़ा करती है। जब विदेशी किराना के मसले पर संसद के सदनों में बहस चल रही थी, तो यही देखने को मिला। वाम दल और भारतीय जनता पार्टी एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं, लेकिन इस मसले पर दोनों एक साथ थे। ममता बनर्जी अपने धुर विरोधी वामपंथी दलों के नेताओं को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही थीं। दूसरी तरफ एक दूसरे को देखना भी नहीं पसंद करने वाले मायावती और मुलायम एक मंच पर खड़े दिखाई दे रहे थे।