इस सवाल का जवाब जानने के लिए अमेरिका के साथ भारत के हुए परमाणु करार की नियति को देखना दिलचस्प होगा। 2008 में अमेरिका के साथ भारत का परमाणु करार संपन्न हुआ था। उस करार के खिलाफ देश में जबर्दस्त वातावरण बनाया गया था। विरोधियों का कहना था कि वह करार अमेरिका को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है और वहां के परमाणु व्यापारी इस करार के संपन्न होने के बाद भारत में 400 अरब डॉलर के निवेश की योजना रखते हैं। वे अपनी शर्तों पर भारत में निवेश करेंगे और भारत अपने हितों को साधने की जगह उनके हितों को साधने का उपकरण बन जाएगा।
परमाणु करार के 4 साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक अमेरिका के परमाणु प्रतिष्ठान के साथ भारत का एक डाॅलर का सौदा भी नहीं हुआ है। सच कहा जाय, तो भारत के परमाणु कार्यक्रमों को उस करार के बाद किसी भी प्रकार के कोई पंख नहीं लगे हैं। अमेरिका के साथ भारत का सरकारी स्तर पर किया गया करार व्यापारिक स्तर पर अभी तक खरा नहीं उतरा है, क्योंकि व्यापार करने के लिए सिर्फ एक करार काफी नहीं होता, बल्कि देश के अन्य कानून और कानूनों से इतर का पूरा माहौल भी अनुकूल होने चाहिए।
जिस तरह से भारत में किराना सेक्टर में विदेशी निवेश को लेकर माहौल बना हुआ है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा लिए गए इससे संबंधित ताजा फैसलों के बावजूद भी भारत में विदेशी कंपनियों का आना आसान नहीं है। इसके कारण सरकारी फैसले के विरोध में ही नहीं, बल्कि खुद सरकार के अपने फैसले में भी निहित हैं। विदेशी किराना को भारत में आमंत्रित करते हुए जो फैसला किया गया है, उसके अनुसार 10 लाख और उससे अधिक आबादी वाले शहरों मंे ही उनकी दुकानें खुल सकती हैं। सवाल उठता है कि भारत में ऐसे शहरों की संख्या है ही कितनी? भारत में ऐसे शहरों की संख्या 18 बताई जा रही है।
10 लाख की आबादी की शर्त के साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि किसी विदेशी कंपनी को किराना स्टोर अथवा उससे जुड़ी कोई अन्य सुविधा खोलने की इजाजत देने या नहीं देने का अंतिम अधिकार राज्य सरकारों के पास है, न कि केन्द्र सरकार के पास। संसद में बहस के दौरान स्पष्ट हो गया है कि देश की अधिकांश पार्टियां और अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री विदेशी किराना के खिलाफ हैं। यह भी अबतक साफ हो गया है कि सिर्फ कांग्रेस की सरकार वाले राज्यों में ही यह विदेशी निवेश होने हैं। कांग्रेस की महाराष्ट्र और केरल में अन्य पार्टियों के साथ मिली जुली सरकारें हैं। केरल सरकार इस निवेश के खिलाफ है और महाराष्ट्र सरकार में शामिल एनसीपी ने भी अपने प्रदेश में इसे लागू करने पर आपत्ति जाहिर कर दी है।
यानी सिर्फ और सिर्फ कांगेस शासित राज्यों में ही फिलहाल किराना में विदेशी निवेश संभव है। उन राज्यों के उन्हीं शहरों में विदेशी किराना दुकानें खुल सकती हैं, जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है। ऐसे राज्य कितने हैं और उन राज्यों में ऐसे शहर कितने हैं? कांग्रेस की सरकारें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, असम, उत्तराखंड व कुछ अन्य छोटे राज्यों में ही हैं। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना को लेकर घमासान मचा रहता है। वैसे माहौल में तो वहां कोई विदेशी किराना आने से रहा। असम में भी तरह तरह की उग्रवादी घटनाएं घटती रहती हैं और वहां 10 लाख से ज्यादा आबादी वाला शहर भी नहीं है। वही हाल उत्तराखंड और कुछ अन्य कांग्रेस शासित राज्यों का है, जहां बड़ी आबादी वाले शहर हैं ही नहीं। कुल मिलाकर दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान बचता है, जहां फिलहाल विदेशी किराना संभव हो सकता है। लेकिन दिल्ली और राजस्थान में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। इन दोनों राज्यों की सरकारें बदलने की संभावना भी बनी हुई है। यदि सरकारे बदलती हैं, तो वह भाजपा की ही होगी, क्योंकि वही दोनों राज्यों में कांग्रेस का विकल्प है और भाजपा इस तरह के निवेश के खिलाफ है।
तो अब एकमात्र राज्य बच जाता है हरियाणा़, जहां विदेशी कंपनियां अपना किराना स्टोर खोलने की सोच सकती है। पर जिस तरह से देश में विदेशी किराना का विरोध हो रहा है और विरोध में जिस तरह के तर्क दिए जा रहे हैं और जिस तरह की राजनीति आने वाले वर्षों में भी होने वाली है, उन्हें देखते हुए किसी भी बड़ी विदेशी कंपनी को भारत में अपना किराना स्टोर खोलने के पहले 10 बार सोचना पड़ेगा। भारत एक सक्रिय लोकतंत्र है। सक्रिय लोकतंत्र इसलिए है कि यहां प्रत्येक साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और राजनैतिक पार्टियां वोट पाने के लिए सही गलत तरीके से मतदाताओं को लुभाती रहती हैं।
मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में असंगठित क्षेत्र की करीब 4 करोड़ दुकानें खुली हुई हैं और जिनसे 20 करोड़ लोगों की आजीविका चलती है। मतदाताओं के इतने बड़े वर्ग को अपने पाले में लाने के लिए राजनैतिक पार्टियां क्या क्या नहीं कर सकती हैं? इनके दबाव का नतीजा है कि शरद पवार की पार्टी ने संसद में सरकार के साथ होने के बाद भी कहा है कि महाराष्ट्र में हम विदेशी किराना के खिलाफ हैं। डीएमके ने मतदान में भले साथ दिया हो, लेकिन वह कह रही है कि तमिलनाडु में विदेशी निवेश को स्वीकार नहीं किया जाएगा और उसकी प्रतिद्वंद्वी ऑल इंडिया अन्ना डीएमके तो कह रही है कि केन्द्र की अगली सरकार में इस फैसले को ही वापस ले लिया जाएगा। सिर्फ जयललिता ही नहीं, बल्कि विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का भी कहना है कि उसकी सरकार बनने के बाद इस फैसले को निरस्त कर दिया जाएगा। जाहिर है, ऐसे राजनैतिक माहौल में कोई बड़ी विदेशी कंपनी भारत में अपना पैसा क्यों लगाना चाहेगी?
यदि सभी राज्यों में विदेशी किराना संभव नहीं हैं, तो विदेशी कंपनियों को एक और बड़ी समस्या का सामना करना पड़ेगा। उसका सप्लाई चेन बहुत लंबा होता है। किसी एक राज्य में उसका स्टोर हो तो उसका चेन पड़ोसी राज्य में भी पहुंच सकता है। अब यदि पड़ोसी राज्य चेन तैयार करने की सुविधा ही उसे नहीं देती है, तो फिर वह कैसे अपनी दुकान चला सकती हैं। यही नहीं, अमेरिका के कुछ शहरों के स्थानीय निकायों ने अपने तरीके से वाल मार्ट की प्रवेश को निरूद्ध कर रखा है। शहरी निकायों ने किराना दुकानों के आकार को तय कर रखा है। तय आकार से बड़े क्षेत्र पर किराना स्टोर नहीं खुल सकते। अब यदि दिल्ली नगर निगम ने भी कुछ ऐसे ही नियम बना डाले, तो केन्द्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों की अनुमति के बावजूद भी शायद दिल्ली में विदेशी किराना स्टोर नहीं खुल सकेंगे, क्योंकि यहां नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है। इसलिए विदेशी किराना को इजाजत मिलने के बावजूद भारी पैमाने पर विदेशी खुदरा कंपनियों का भारत में प्रवेश आसान नहीं होगा। (संवाद)
किराना में विदेशी निवेश की अड़चनें
खराब निवेश माहौल में कैसे आएंगी विदेशी कंपनियां?
उपेन्द्र प्रसाद - 2012-12-12 11:44
किराना सेक्टर में विदेशी निवेश के लिए सरकारी अधिसूचना जारी होने के बाद इसे लोकसभा और राज्यसभा का विश्वासमत भी हासिल हो चुका है। अब सवाल उठता है कि क्या वालमार्ट, टेस्को और केरफोर जैसी बड़ी रीटेल कंपनियां भारत में अपनी दुकानें खोलने के लिए कूद पड़ेंगी और क्या हमारे देश के खुदरा दुकानदार, जिनकी संख्या करीब 4 करोड़ मानी जा रही है, बेरोजगारी का शिकार होने लगेंगे?