गुजरात में इस बार मोदी बनाम अन्य की लड़ाई थी। मोदी बंांड को बेचने में मोदी सफल हो गए? उन्होंने संवाद की आधुनिकतम प्राविधिकी का इस्तेमाल अपने चुनाव प्रचार के लिए किया। उन्होंने फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइठ्स का भी बखूबी इस्तेमाल किया। मोदी मायावती की तरह अपनी पार्टी के प्रमुख नहीं हैं, लेकिन वे एक कल्ट बन चुके हैं। मायावती क्या, वे मुलायम, ममता या जयललिता की तरह भी अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा नहीं हैं, लेकिन उन्होंने अपने आपको एक कल्ट के रूप में स्थापित कर दिया है। लोग या तो उन्हें प्रेम करते हैं या उनसे नफरत करते हैं, लेकिन कोई उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

प्रधानमंत्री पद की ओर अपनी दौड़ की पहली बाधा गुजरात में तीन बार विधानसभा का चुनाव जीतकर मोदी पार कर चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद आगे का उनका रास्ता साफ नहीं होने वाला है। पहली बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में उनके लिए अभी कोई स्लाॅट खाली नही ंहै। आरएसएस और भाजपा को अभी इस बात का निर्णय करना है कि नितिन गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाया जाय या नहीं। उनका कार्यकाल 19 दिसंबर को समाप्त हो चुका है। सबसे पहले आरएसएस को इस बात को लेकर आश्वस्त करना पड़ेगा कि मोदी पार्टी का बेड़ा पार लगाने की क्षमता रखते हैं। फिलहाल आरएसएस और मोदी के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं। और मोदी द्वारा आरएसएस का समर्थन मिलना जरूरी है। भाजपा उन्हें समर्थन तभी करेगी, जब उन्हें आरएसएस का समर्थन हासिल होगा। यदि मोदी पर सहमत भी हो जाते हैं, तो क्या गुजरात छोड़ना मोदी के लिए आसान होगा? भाजपा के अंदर के लोगो ंका कहना है कि उनके पक्ष में फैसला किया गया तो वे गुजरात से दिल्ली की ओर कूच कर सकते हैं लेकिन अभी नहीं। अभी वे मुख्यमंत्री का पद संभालेंगे ओर जिस दिन उन्हें दिल्ली आने के लिए कहा जाएगा, उस दिन सुबह में इस्तीफा देकर वे शाम को दिल्ली आ सकते हैं और अपनी नई जिम्मेदारी को संभाल सकते हैं। दूसरा विकल्प यह है कि मोदी अभी ही घोषणा कर दें कि उन्होंने गुजरात का अपना काम कर दिया है और भाजपा दिल्ली में उसके लिए काम ढूंढ़े।

उनकी एक और समस्या है। यदि उन्हें सर्वोच्च पद के लिए चुना गया तो करीब आधा दर्जन ऐसे लोग हैं, जो उनसे नाराज हो जाएंगे और फिर उन लोगों को समझाएगा कौन? आडवाणी खुद मोदी को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली खुद प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं। पार्टी के अंदर सर्वसहमति बनानी पड़ेगी।

तीसरी समस्या राजग की सहयोगी पार्टियों की ओर से आएगी। आडवाणी और अटल की तरह मोदी सहयोगी दलों के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफ कह दिया है कि वे प्रधानमंत्री के रूप में मोदी उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं। नीतीश को तो बिहार में मोदी द्वारा चुनाव प्रचार किया जाना भी पसंद नहीं है। अपने निधन के पहले शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे कह रहे थे कि प्रधानमंत्री के रूप में उनकी पसंद सुषमा स्वराज है।

मोदी के कारण देश की पूरी राजनीति का ध्रुवीकरण होने लगता है। क्या पार्टी इस तरह की जोेखिम उठा पाएगी? कहा जा रहा है कि मोदी भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री तभी बन सकते हैं जब पाटी्र 250 सीटें लाने में सफल हो सके। क्या भाजपा अपने लिए 250 लोकसभा सीट पाने की क्षमता रखती है?

मोदी को लेकर एक सवाल उनके काम करने की शैली को लेकर उठाया जाता है। कहा जाता है कि वे अकेले चलने में विश्वास करते हैं। 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्होने सबकुड अरुण जेटली पर छोड़ दिया था। 2007 के चुनाव में उन्होने सबकुछ अपने हाथ में लेना चाहा और 2012 के चुनाव में उन्होंने सबकुछ अपने हाथ में ले लिया। पाटी्र के अंदर कुछ लोग कहते हैं कि मोदी पार्टी के अंदर के अपने सहकर्मियों पर विश्वास नहीं करते और ज्यादातर विभाग अपने पास ही रखते हैं। वे सत्ता के बंटवारे में विश्वास नहीं रखते।

उनकी एक और समस्या गोधरा के बाद हुए दंगे को लेकर है। उसके कारण उनकी छवि खराब हुई है, और वे उसे ठीक करने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन उनके विरोधी उनकी इस बात को पचा नहीं पाते। हालांकि देश के बाहर वे अपनी छवि बदलने में सफल भी हुए हैं। अब देखना यह है कि क्या मोदी इन बाधाओं को पार कर पाएंगे? (संवाद)