हो सकता है कांग्रेस राजग को तोड़ने में सफल हो जाय और खासकर जनता दल (यू) अगले चुनाव मे उसके साथ हो जाय, लेकिन नरेन्द्र मोदी के साथ उड़ीसा के बीजू पटनायक और तमिलनाडु की जयललिता जैसे नेता आ सकते हैं और भारतीय जनता पार्टी मोदी के नेतृत्व में अगली सरकार बनाने के लिए अपनी ताकत झोक सकती है। विकास और अच्छी सरकार उसके चुनाव अभियान का मुख्य केन्द्र हो सकता है।

भारतीय जनता पार्टी की इस रणनीति से जूझने का मुख्य जिम्मा तो कांग्रेस का है, जिसे भाजपा के खिलाफ अधिकांश राज्यों मंे आमने सामने होना है। लोकसभा चुनाव के पहले 8 राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इनमें कांग्रेस ओर उसके नेता राहुल गांधी की परीक्षा होनी है। पर सवाल उठता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए वामपंथी दलो की क्या भूमिका होगी खासकर तब, जब भाजपा अगले चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा रही होगी?

सीपीएम आज भारी दुविधा में है। वे चार वामपंथी दलों के वाममोर्चा का नेतृत्व कर रहा है। जाहिर है, उसका 2014 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा दांव पर लगा हुआ है। 2009 के लोकसभा चुनाव में उसे जो झटका लगा, उससे वह अभी तक उबर नहीं पाई है। उसके बाद वह पश्चिम बंगाल ओर केरल की अपनी प्रदेश सरकारें भी खो चुकी है। वाममोर्चा के पास इस समय लोकसभा में 24 सांसद हैं, जिनमें से 16 सीपीएम के हैं। 2009 के पहले लोकसभा में मोचा्र के 61 सांसद थे और सीपीएम के अकेले 43। संसदीय इतिहास में वाम दलों का इतना अधिक प्रतिनिधित्च किसी और लोकसभा के कार्यकाल में नहीं था।

सीपीएम अभी अपनी अगली रणनीति तैयार नहीं कर पाई है। पिछले लोकसभा सत्र मंे वह केन्द्र सरकार की खुदरा व्यापार मं विदेशी निवेश की नीतियों के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर विरोध कर रही थी। गौरतलब है कि ये दोनों पार्टियां सीपीएम की धुर विरोधी हैं। तृणमूल कांग्रेस तो उसी मुद्दे को अपना रही है, जिनपर कभी वामपंथी पार्टियां पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीति किया करती थीं। उन मुद्दों को तो वामपंथी उठाते थे, लेकिन जमीन पर उन्हें वे नही ला सके और अब ममता बनर्जी ने उन्हें अपना लिया है। यही कारण है कि अनेक मुद्दों पर तृणमूल और वामपंथी दलों के सुर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, पर राजनैतिक धरातल पर उसी तृणमूल को पराजित करना सीपीएम और उसके नेतृत्व वाले वाममोर्चा की आज सबसे बड़ी चुनौती है।

2004 में सीपीएम को बंगाल में 24 सीटें मिली थीं, जो 2009 में घटकर 9 रह गईं। मात्र 15 सीटें वहां वाम दलों को मिली थीं। वाममोर्चा के अन्य तीनों घटको को वहां दो दो सीटें मिली थीं। शहरी इलाके में ममता बनर्जी के खिलाफ असंतोष दिखाई पड़ रहा है, लेकिन वह ग्रामीण इलाकों में अपना प्रभाव बढ़ाने की जी तोड़ कोशिश कर रही है। सीपीएम कुछ क्षेत्रों में तृणमूल कांग्रेस से तभी सफलता पूर्वक मुकाबला कर सकती है, जब कांग्रेस का उसे अंदरूनी समर्थन मिले। आज वहां कांग्रेस की जो स्थिति है, उसमें इस तरह का समर्थन संभव भी है, क्योंकि अब वहां तृणमूल को पराजित करना कांग्रेस की पहली प्राथमिकता होती जा रही है।

दुविधा यहीं पर है। सीपीएम आर्थिक नीतियों के मसले पर कांग्रेस के खिलाफ है और वह तृणमूल के साथ है, लेकिन जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ संघर्ष का मामला सामने आता है तो सीपीएम और कांग्रेस एक पाले में खड़ी दिखाई देती है। पश्चिम बंगाल सीपीएम के अनेक लोग ऐसा मानते हैं कि यदि तृणमूल कांग्रेस को पराजित करना है तो प्रदेश में कांग्रेस के साथ कम से कम अप्रत्यक्ष तौर पर ही कुछ न कुछ सहयोग करना पड़ेगा। कांग्रेस के साथ सिविल सोसाइटी के साथ भी तालमेल बैठाना होगा।

तृणमूल कांग्रेस द्वारा केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लिए जाने और कांग्रेस द्वारा ममता सरकार से अपने मंत्रियों को हटा लिए जाने के बाद पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ओर सीपीएम के नेताओं के बीच संवाद बढ़ा है, लेकिन उस संवाद को अभी तक औपचारिक रूप नहीं दिया गया है। सीपीएम द्वारा यह निर्णय किया जाना बाकी है कि क्या पश्चिम बंगाल की ईकाई को वहां तृणमूल के खिलाफ संघर्ष करने के लिए कांग्रेस के साथ अप्रत्यक्ष सहयोग की इजाजत दे दी जाय।

2013 के अप्रैल- मई महीने में पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव होने हैं। 2008 के पंचायत चुनावो में तृणमूल ने सीपीएम को पछाड़ दिया था और 2009 और 2011 में भी तृणमूल का विजय अभियान जारी रहा था। सीपीएम का नेतृत्व अगले पंचायत चुनावों के परिणाम को देखना चाहेगे और उसके बाद उसे यदि लगेगा कि तृणमूल सीपीएम की कीमत पर वहां बढ़ रही है, तो उसे कांग्रेस के साथ अप्रत्यक्ष सहयोगी के लिए स्थानीय ईकाई को इजाजत देनी भी पड़ सकती है। यह सहयोग बंगाल तक ही सीमित रहेगा, क्योंकि केरल और त्रिपुरा में तो उसे कांग्रेस के खिलाफ ही चुनाव लड़ना है। (संवाद)