पर इस आंदोलन पर सरकार की भूमिका अत्यंत ही निराशाजनक रही। लगता है कि सरकार के लोगों को इस बात की चिंता ही नहीं रह गई है कि देश में क्या हो रहा है। इस घटना पर केन्द्रीय मंत्री ने संसद में जो कुछ कहा, वह बस निपटाने वाली बात थी। उन्होंने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं और उनका संसद में जो जवाब था, उसमें एक राजनेता नहीं, बल्कि नौकरशाही की प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती थी। देश जहां बलात्कार की घटनाओं से आहत होकर आंदोलित हो रहा था वहीं केन्द्रीय गृहमंत्री जवाब दे रहे थे कि बसों में महिलाओ से बलात्कार न हो, इसके लिए क्या क्या उपाय किए जा रहे हैं। वे कह रहे थे कि बसों रंगीन शीशों को हटाने के आदेश दे दिए गए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ड़ªाइवरों के फोन नंबर और उसके लाइसेंस की काॅपी बस के शीशे पर चिपका दी जाएगी और जब वे ड्राइवर ड्यूटी पर नहीं रहेंगे, तो उन्हें बसों को अपने मालिको के जिम्मे कर देना पड़ेगा। जाहिर है, इस तरह का जवाब कोई संवेदनशील राजनेता का नहीं हो सकता है। कोई नौकरशाह का ही यह जवाब हो सकता है, जो एक घटना विशेष से प्रभावित होकर उसे रोकने का प्रस्ताव तैयार कर रहा हो।

लेकिन बलात्कार सिर्फ बसों मंे नहीं होते। वे कहीं भी और कभी भी हो सकते हैं और उन्हें रोकने के लिए मुकम्मिल व्यवस्था बनाए जाने की जरूरत है। दोषियों केा जल्द सजा दिए जाने की जरूरत है। एक राजनेता के रूप में गृहमंत्री को बलात्कार की समस्या को एक बड़े नजरिए से देखते हुए उसके लिए एक बड़ा निदान लेकर सामने आना चाहिए था, पर वे ऐसा करने में चूक गए। केन्द्रीय कानून मंत्री को भी सामने आकर लोगो ंको भरोसा दिलाना चाहिए था कि सरकार के पास दोषियों को जल्द सजा देने के लिए कौन सा कानूनी प्रावधान करने के उनके विचार हैं और देश में बलात्कार के लंबित पडे सवा लाख मुकदमों को जल्द से जल्द निबटाने के लिए कौन सी तैयारी वे करने जा रहे हैं।

यानी गृहमंत्री और कानून मंत्री ने अपनी जिम्मेदारियों को निभाया नहीं। कानून मंत्री ने तो एक वक्तव्य तक देना जरूरी नहीं समझा। फिलहाल भारी हंगामें के बाद 5 फास्ट ट्ैक कोर्ट के गठन की घोषणा कर दी गई है, जो आगामी 3 जनवरी से रोज रोज सुनवाई करके दिल्ली में लंबित बलात्कार के सारे मामले को तेजी से निपटाएगी। न्यायमूर्ति जेएस वर्मा के नेतृत्व में एक कमिटी भी गठित कर दी गई है, जो लोगों से राय मशविरा करके बलात्कार से संबंधित कुछ कड़े कानूनी प्रावधान करेगी। सरकार की इन घोषणाओं के बाद कुछ शांति आई है।

इस तरह के प्रावधान होने ही चाहिए। पर सवाल उठता है कि क्या कड़े कानून प्रावधान करके बलात्कार की घटनाओं को रोका जा सकता है? इसका जवाब नकारात्क है। इसका कारण यह है कि नई आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन के बाद जो माहौल बने हैं, उसमें महिलाएं असुरक्षित हो गई हैं। पहले सामूहिक बलात्कार की घटनाओं की खबरें गावों से आती थीं। बलात्कार सिर्फ वासना के वशीभूत ही नहीं होते। इसका एक सामाजिक आयाम भी है। प्रायः एक वर्ग दूसरे वर्ग को नीचा दिखाने और उसका दमन करने के लिए महिलाओं के साथ बलात्कार करता है। इस तरह वर्ग संघर्ष की शिकार महिलाएं हो जाती हैं। 1980 के दशक मंे फूलन देवी के साथ एक दबंग जाति के लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया था। आजादी के बाद का वह सर्वाधिक चर्चित बलात्कार कांड था और उसकी चर्चा इसलिए भी ज्यादा हुई थी, क्योंकि फूलन देवी ने उसे बलात्कार में शामिल अनेक लोगों को मौत के घाट उतार दिए थे। बलात्कार का बदला फूलन ने नरसंहार से लिया था।

अब बलात्कार ज्यादातर शहरी रूप ले रहा है। देश का तेजी से शहरीकरण नई आर्थिक नीतियों के बाद हुआ है। देश की लगभग एक तिहाई आबादी अब शहरी हो गई है। आर्थिक नीतियां तेज विकास को बढ़ा रही है, लेकिन इनके कारण सामाजिक विषमता भी बढ़ती जा रही है। जो शहर बस रहे हैं, उनमें संपन्न लोगों के साथ साथ अत्यंत गरीब लोग भी रहते हैं। दोनो बहुत पास पास रह रहे हैं। एक ओर विकास की चकाचैंध और माॅल संस्कृति है, तो दूसरी ओर फटेहाल लोगों की एक बड़ी फौज तैयार हो गई है। विषमता की बढ़ती खाई एक ऐसे वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दे रही है, जिसका शिकार महिलाओं को भी होना पड़ रहा है।

आर्थिक नीतियों से विकास हो रहा है और विकसित हो रहे बाजार में महिलाओं को एक उपभोग की वस्तु के रूप मंे भी पेश किया जा रहा है। उपभोक्तावाद का यह तनाव भी महिलाआंे को लगातार असुरक्षित बना रहा है। दिल्ली में हुए बलात्कार में शामिल सभी 6 लोग अत्यंत ही गरीब पृष्ठभूमि के हैं और वे संत रविदास झुग्गी कैंप में रह रहे थे। लोगों को लग सकता है कि वे दलित होंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि दलित बस्ती में रह रहे वे लोग तथाकथित अगड़ जातियों से ही आए हैं, जो हमारी नई आर्थिक नीतियों की आभिजात्यवादी प्रकृति का शिकार हो गए हैं। ऐसे लोगों के मन में संपन्न तबके के खिलाफ एक प्रकार की वर्ग घृणा पैदा हो गई है। वह लड़की उस घृणा का शिकार बनी है। बलात्कार के बाद उसके साथ जो पाशविक अत्याचार हुए, इससे यही पता चलता है कि महानगरों मे वर्ग घृणा का स्तर कितना ऊंचा हो चुका है। यह सच है कि वह लड़की भी कोई बहुत संपन्न परिवार की नहीं थी, लेकिन कम से कम उन दरिंदों ने उसे संपन्न वर्ग का ही प्रतिनिधि समझा।

इसलिए हमें यदि महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करनी है, तो कानूनी प्रावधानों के अतिरिक्त विकास की नीतियों को भी बदलना पड़ेगा और महिलाओं को उपभोक्ता वस्तु के रूप में पेश करने की बाजार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। इसके अतिरिक्त महिलाओं का लिंग अनुपात कम होना भी उनकी सुरक्षा के लिए भयावह है। पुरूषों के मुकाबले उनकी संख्या जितनी कम होंगी, वे उतनी ही जयादा असुरक्षित हो जाएंगी। इसलिए महिलाओं के सशक्तिकरण के सारे उपाय बिना किसी विलंब के शुरू कर दिए जाने चाहिएं, ताकि मां बाप अपनी बेटियों को बोझ न समझें और कन्या भ्रूणों की हत्या न हो। (संवाद)