इस समय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के सिर पर केन्द्र की राजनीति की दबंग बनने का जुनून सवार है और अपने राज्य की चिंता ही नहीं है। वह इस समय अपने आपको केन्द्र के एक ऐसे संघीय मोर्चे की नेता के रूप में देख रही है, जिसके इर्द गिर्द भविष्य की केन्द्रीय राजनीति का ताना बाना बुना जाना है। इसके लिए उन्हें एक साथ ही कांग्रेस, भाजपा और वाम पार्टियों को पराजित करना होगा। उन्हें लगता है कि वे ऐसा कर सकती हैं।

पर ममता की समस्या यह है कि कोई भी उनके राजनैतिक जेहाद को गंभीरता से नहीं ले रहा है। जनता दल (यू) और बीजू जनता दल जैसी पार्टियां उनके द्वारा प्रस्तावित किसी संघीय मोर्चे में दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। नीतीश कुमार जब पिछले दिनों कोलकाता मंे थे, तो उन्होंने ममता बनर्जी से मुलाकात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। केन्द्र सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने का उनका प्रयास भी विफल हो गया था, क्योंकि अन्य पार्टियों ने उसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई।

ममता की समस्या यह भी है कि दूसरी पार्टियों के नेता 2011 के विधानसभा चुनाव परिणाम से इतने ज्यादा उत्साहित नहीं हैं, कि वे उन्हें अपनी नेता मान लें। वे यह भी देखना चाह रहे हैं कि सत्ता मंे आने के बाद वह किस तरह से अपने प्रदेश की सरकार का संचालन कर रही हैं। वे चाहते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में वे उन घोषणाओं पर अमल करें, जो उन्होंने चुनाव के पहले की थीं। वे पहले उन्हें एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। पर ममता बनर्जी अपने प्रदेश की अपनी सरकार को लेकर बहुत गंभीर दिखाई नहीं पड़ रही है।

तृणमूल कांग्रेस के दावों और सच्चाई में बहुत बड़ा अंतराल दिखाई पड़ता है। मुख्यमंत्री कह रही हैं कि उन्होंने चुनाव के पहले किए गए अपने वायदों का 90 फीसदी पूरा कर दिया है। उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी कह रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में 2 लाख करोड़ रुपये का औद्योगिक निवेश पाइपलाइन में है। सच्चाई यह है कि पिछले 18 महीनों मे कोई भी बड़ा अथवा मध्यवर्ती उद्योग पश्चिम बंगाल में अस्तित्व में नहीं आया है।

मुख्यमंत्री यह भी दावा कर रही हैं कि 3 लाख से 6 लाख युवकों को उनकी सरकार रोजगार उपलब्ध करवा चुकी हैं। लेकिन इस दावे को मुख्यमंत्री के कट्टर समर्थक भी दुहराने की जुर्रत नहीं कर सकते। वे अपना यह दावा अपने भाषणों में करती दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इस दावे को सच साबित करने का कोई प्रमाण अथवा उदाहरण वे पेश नहीं कर सकतीं। रोजगार के ये अवसर कहां और कैसे पैदा हुए, इन सवालों का कोई भी जवाब उनके पास नहीं है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि जहां ममता अपने 90 फीसदी चुनावी वादों को पूरा करने का दंभ करती हैं, वहीं वह केन्द्र सरकार पर पश्चिम बंगाल को भूखा मारने का आरोप थोप रही हैं।

लेकिन यह मानना पड़ेगा कि ममता असाधारण रूप से साहसी एवं धैर्य रखने वाली नेता हैं। उनके दावों और वास्तविकता में कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन वे दावे करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती। उनका प्रशासन बुरी तरह विफल हुआ है। इसके बाद भी वे केन्द्र के स्तर पर अपनी बड़ी भूमिका की उम्मीद लगाए बैठी हैं।

ममता न तो केन्द्रीय रेल मंत्री के रूप में सफल रही हैं और न ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में। राष्ट्रीय राजनीति मे भी अबतक उन्हें मुह की ही खानी पड़ी है। राष्ट्रपति चुनाव के समय उन्होंने केन्द्र की राजनीति में दखल देना शुरू किया था। उन्होंने केन्द्र सरकार के खिलाफ समाजवादी पार्टी को इस्तेमाल करना चाहा था, लेकिन पासा उलटा पड़ गया। समाजवादी पार्टी ने ही उनका इस्तेमाल कर लिया। ममता बनर्जी प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का विरोध कर रही थीं, लेकिन उन्हें अंत मे उनका समर्थन करना पड़ा।

ममता बनर्जी ने केन्द्रीय राजनीति में दूसरी बार हस्तक्षेप करके केन्द्र सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहा, लेकिन यहां भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा। अवश्विास प्रस्ताव लाने लायक सांसदों का समर्थन तक वह जुटा नहीं पाईं।

केन्द्र में अपनी राजनैतिक क्षमता का प्रदर्शन करने की कोशिशों के बीच ममता की पार्टी का आधार अपने प्रदेश में ही कमजोर होता जा रहा है। आने वाले पंचायत चुनाव में उनके उम्मीदवारों को वह सफलता शायद ही मिले, जिसकी वह उम्मीद कर रही हैं। (संवाद)