यह आंदोलन कोई ऐसा वैसा नहीं है, जिसकी सरकार द्वारा उपेक्षा की जाय। सच तो यह है कि इसके कारण प्रधानमंत्री को देश को संबोधित करना पड़ा था और देश की राजधानी के हृदय इंडिया गेट के आसपास के मेट्रो स्टेशनांे तक को कई दिनों तक बंद रखना पड़ा और ऐसे भी मौके आए, जब इंडिया गेट आने वाले सभी रास्ते को सील कर दिया गया। भारत की राजनैतिक सत्ता का केन्द्र इंडिया गेट के आसपास वाला इलाका ही है, जहां राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, सेना भवन और प्रधानमंत्री व अन्य मंत्रियों के कार्यालय हैं। सरकार को आंदोलनकारियों के डर से अपने इस इलाके मंे दुबक जाना पड़ा और वहां लोगों का प्रवेश अवरूद्ध कर दिया गया। लोग और सरकार के बीच में पुलिस और सुरक्षा बल रह गए थे और वही सरकार का जनता के साथ संवाद के माध्यम थे। जिस लोकतंत्र में सरकार और जनता के बीच संवाद का माध्यम पुलिस बन जाय, उस लोकतंत्र को सामान्य लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। वास्तव में आज भारत में जिस तरह की राजनैतिक घटनाएं घट रही हैं, वे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नया और असामान्य अनुभव है। देखते देखते महाराष्ट्र के एक गांव का साधारण ग्रामीण देश के बड़े आंदोलन का नेता बन जाता है और लोग उसके नाम के साथ अपने नाम को जोड़ने लग जाते हैं और फिर एक ऐसा आंदोलन होता है, जिसका कोई नेता ही नहीं है और उस आंदोलन से सरकार इतना डरती है, जितना वह शायद ही कभी डरी हो।

सच कहा जाय तो बलात्कार के खिलाफ चल रहा यह आंदोलन अन्ना के आंदोलन का विस्तार ही है। वह आंदोलन एक बड़े और महान उद्देश्य के लिए शुरू हुआ था। वह अभी तक अधूरा है, बल्कि किसी नतीजे पर उसे नहीं पहुंचता देख लोगों का जनमानस और अभी उद्वेलित हो गया है और उसी उद्वेलन के कारण बलात्कार की एक घटना के बाद पूरे देश में एक बार फिर वह तूफान खड़ा हो गया, जो अन्ना के अनशन के साथ 2011 में खड़ा हुआ था। उस आंदोलन के सामने भी सरकार झुकी थी और संसद में एक प्रस्ताव पारित कराकर अन्ना का अनशन समाप्त करवाया गया था। आंदोलन के दौरान बार बार संसद की सर्वोच्च्ता का हवाला देने वाली सरकार ने संसद द्वारा पारित उस प्रस्ताव के अनुसार लोकपाल का विधेयक तैयार नहीं किया। एक अप्रभावी और कमजोर लोकपाल का विधेयक लोकसभा से पारित भी करवाया गया, तो राज्यसभा में ले जाकर अटका दिया गया।

लोकपाल विधेयक के साथ इस तरह का खिलवाड़ कर के सरकार समझ रही है कि उसने अन्ना के आंदोलन की हवा निकाल दी है। अन्ना के आंदोलन से ही एक पार्टी बनकर निकली है और उस पार्टी के साथ अन्ना खुद नहीं हैं। सरकार और सत्तारूढ़ तबका राहत की सांस ले रही थी कि चलो अन्ना को उनकी टीम से अलग कर दिया गया और अब अलग अलग रहकर दोनों कुछ कर नहीं सकते, पर इसी बीच एक और बड़़े आंदोलन ने सरकार की नींद एक बार फिर खराब कर दी है।

दरअसल बात यह है कि अन्ना का आंदोलन जिस उद्देश्य के लिए शुरू हुआ था, उसे पूरा हुए बिना यह आंदोलन समाप्त हो ही नहीं सकता। यह मानना गलत है कि यह आंदोलन अन्ना का शुरू किया गया है। यह वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ जनता के बीच उपज रहे भारी असंतोष से पैदा हुआ है। अन्ना का अनशन लोगों के असंतोष को मूर्त रूप देने का एक बहाना मिल गया और अन्ना देखते देखते एक बड़े आंदोलन का नायक बन गए। जिस तरह अन्ना के अनशन ने लोगों के आंदोलन का हवा दी उसी तरह दिल्ली की एक लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार ने उसी आंदोलन को एक बार फिर हवा दी है और इस हवा में सरकार ही नहीं, बल्कि लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के होश हवा हो गए हैं।

वास्तव में लोगों का असंतोष सिर्फ सरकार से नहीं, बल्कि पूरे राजनैतिक वर्ग से है। पिछले 20 सालों के दौरान देश की सभी पार्टियां कभी न कभी किसी न किसी रूप में सत्ता में रह चुकी है। सत्ता में रहकर उनके नेताओं ने दिखा दिया है कि भले ही अपनी अपनी राजनीति के कारण वे एक दूसरे से अलग दिखाई देते हैं, पर जब सत्ता में जाते हैं, तो उनका स्वरूप एक जैसा होता है। जब कांग्रेस का देश की राजनीति पर एकदलीय वर्चस्व था, तब लोग कांग्रेस विरोधी पार्टियों के साथ गोलबंद होकर अपने असंतोष का इजहार करते थे, लेकिन सत्ता में रहरह कर देश की तमाम पार्टियों और उनके नेताओं का कांग्रेसी करण हो गया है। यही कारण है कि सत्ता का विरोध करने के लिए लोगों के पास राजनैतिक पार्टी के रूप में विकल्प रह ही नहीं गए हैं।

यही कारण है कि अब जो आंदोलन हो रहे हैं, उसमें राजनेताओं की शिरकत नहीं हो सकती। वे आंदोलन नहीं शुरू कर सकते और यदि आंदोलन शुरू हुआ, तो उनके घडि़याली आंसुओं को देखने और सुनने का धैर्य आंदोलनकारियों के पास नहीं है। अन्ना ने जब अप्रैल 2011 में जंतर मंतर पर अनशन किया था, तो उनके मंच पर आने वाले राजनेताओं को लोगों ने खदेड़ दिया था। उसके बाद अब वे उनके बीच आने की हिम्मत ही नहीं करते। बलात्कार के खिलाफ हो रहे आंदोलन के बीच जंतर मंतर पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हिम्मत जुटाकर शिरकत करने की कोशिश की, तो उन्हें भी वहां से खदेड़ दिया गया। इंडिया गेट पर आंदोलनकारियों के बीच उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित पहुंचे, तो उन्हें भी वहां से भागना पड़ा था।

जाहिर है, भ्रष्टाचार अथवा बलात्कार के विरोध में चल रहे आंदोलन के मूल में देश की सभी पार्टियों के खिलाफ लोगों में पैदा हुआ अविश्वास है। लेकिन हमारे देश का लोकतांत्रिक शासन चुनावों पर आधारित है और चुनावों में राजनैतिक पार्टियां ही भाग लेती हैं। उनमें से ही किसी को जनता को चुनना पड़ता है। यदि सभी पार्टियों का रंग एक जैसा ही हो, तो फिर चुनाव के समय भ्रष्टाचार अथवा बलात्कार मुद्दा ही नहीं बन पाता। जाहिर है, यदि अन्ना के आंदोलन अथवा बलात्कार के खिलाफ पैदा रोष से लोकतंत्र को स्वच्छ बनाना हो तो नये राजनैतिक विकल्प भी चाहिए। आम जनता पार्टी का गठन करके एक राजनैतिक विकल्प देने की कोशिश भी की जा रही है। देखना है कि यह कोशिश कितनी सफल होती है। (संवाद)