इस बार सरकार का पतन झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा मंुडा सरकार से समर्थन वापस लिए जाने के कारण हुआ है। मोर्चा अगले 20 महीनों तक अपने नेतृत्व में सरकार चलाने का आग्रह कर रहा था, वहीं भाजपा ने उसके इस आग्रह को ठुकरा दिया। और अब गंेद प्रदेश के राज्यपाल के पाले मंे है। इस्तीफा देने के पहले अर्जुन मुडा सरकार ने विधानसभा भंग कर प्रदेश विधानसभा का नया चुनाव कराने का प्रस्ताव दे डाला है। राज्यपाल ने इस्तीफा तो स्वीकार कर लिया है, लेकिन विधानसभा को भंग करने की मुडा सरकार के प्रस्ताव को मानने के लिए बाघ्य नहीं हैं, क्योंकि जिस समय मुडा सरकार ने यह प्रस्ताव किया, उस समय वह अल्पमत में थी।

अब राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं। पहला विकल्प तो विधानसभा भंग कर नये चुनाव कराने का है। दूसरा विकल्प किसी सरकार को शपथग्रहण कराने का है और तीसरा विकल्प है विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लागू करने का। पहले विकल्प की संभावना कम दिखाई दे रही है। प्रयास दूसरे विकल्प को संभव बनाने का होगा। यदि वह संभव नहीं हुआ, तो फिर विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लागू करना होगा।

झारखंड विधानसभा में 82 विधायक हैं। एक विधायक तो नामांकित हैं। 81 अन्य विधायकों मंे झारखंड मुक्ति मोर्चा के 18 विधायक हैं। इतने ही यानी 18 विधायक भाजपा के भी हैं। कांग्रेस के पास 13 विधायक हैं। बाबू लाल मरांडी वाले झारखंड विकास मोर्चा के पास 11 विधायक हैं। आॅल झारखंड स्टूडेंट यूनियन के पास 5 विधायक हैं। लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल के पास भी 5 विधायक हैं। दो विधायक जनता दल (यू) का है। शेष 6 विधायक छोटे छोटे दलों और निर्दलीयों के हैं।

झामुमो के नेता शीबू सोरेने तथा उनके पुत्र हेमंत सोरेन अपनी सरकार बनाने के लिए सक्रिय हो गए हैं। उनके पास 18 विधायक हैं। यदि कांग्रेस का समर्थन भी मिल जाता है तो उनके पास 31 विधायक हो जाएंगे। शेष 6 निर्दलीयों और छोटे दलों के विधायकों का समर्थन भी उन्हें मिल सकता है। पर इसके बाद भी उनके पास 5 विधायकों की कमी रह जाएगी। यह कमी राजद के 5 विधायकों के समर्थन से पूरी हो सकती है। पर लालू यादव बहुत आसानी से और बिना किसी शर्तों के झामुमो सरकार को समर्थन देने को तैयार नहीं हो सकेंगे।

इसलिए किसी वैकल्पिक सरकार का जल्द अस्तित्व में आ जाना संभव नहीं दिखाई पड़ता। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव ने सरकार बनाने के झामुमो के प्रयासों के बीच विधानसभा को निलंबित करके राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग भी कर दी है। लालू चाहते हैं कि विधानसभा के निलंबन की अवधि में पार्टियों को आपसी तालमेल बैठाने के लिए ज्यादा समय चाहिए।

सवाल उठता है कि लालू चाहते क्या हैं? यदि उनका दल वहां सत्ता में शामिल हुआ, तो उनके कुछ विधायकों को भी मंत्री का पद मिल सकता है। लेकिन मात्र इतना से ही लालू संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। वे चाहेंगे कि उनके दल को तरीके से यूपीए मंे शामिल किया जाय। झारखंड की सरकार यूपीए की सरकार मानी जाए और यूपीए की केन्द्र सरकार में उनको मंत्री बनाया। लालू केन्द्र की सरकार का बिना शर्त समर्थन कर रहे हैं। वे शुरू से ही सरकार में शामिल भी होना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस उन्हें केन्द्र सरकार में शामिल करने को बहुत उत्साहित नहीं है।

जब 28 महीने पहले झारखंड में सोरेन की सरकार गिरी थी, तब भी श्री सोरेन ने चाहा था कि कांगेस के समर्थन से उनकी सरकार बने। वे तो कांग्रेस के किसी नेता को भी मुख्यमंत्री मानने को तैयार थे। लेकिन इसके लिए कांग्रेस तैयार नहीं हुई थी। इसका कारण यह था कि बिना लालू यादव के 5 विधायकों के समर्थन के झारखंड में कांग्रेस और झामुमो की मिली जुली सरकार नहीं बनती। सरकार में राजद को शामिल होने की शर्त के रूप में लालू खुद भी केन्द्र सरकार में शामिल होना चाहते थे। वे यह भी चाहते थे कि नवंबर 2010 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उनकी पार्टी के साथ उनकी शर्तों पर गठबंधन करने को तैयार हों। पर कंाग्रेस बिहार विधानसभा चुनाव लालू के साथ दूरी बनाकर ही लड़ना चाहती थी और इस दूरी को बनाए रखने के लिए उसने झारखंड मंे अपनी या अपने समर्थन वाली झामुमो सरकार बनाने में दिलचस्पी नहीं ली। इसका नतीजा यह हुआ कि श्री सोरेन ने भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के गठन को स्वीकार कर लिया, जिसमें उनके पुत्र हेमंत सोरेन उपमुख्यमंत्री बन गए।

अब स्थिति बदल गई है। बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का कांग्रेस का जोश भी ठंढा पड़ गया है। इसलिए उसे लालू की शर्ते मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। लालू यादव केन्द्र में मंत्री पद के अलावा बिहार और झारखंड मंे गठबंधन के साथ लोकसभा चुनाव भी लड़ना चाहेंगे। कांग्रेस भी यही चाहेगी। कांग्रेस अपने लिए झारखंड में ज्यादा से ज्यादा लोकसभा की सीटें चाहेंगी।

वैसे राष्ट्रपति शासन भी कांग्रेस के लिए ठीक है, क्योंकि केन्द्र में उसकी सरकार होने का मतलब झारखंड का राष्ट्रपति शासन भी उसका ही शासन होगा। पर विधानसभा के निलंबन के दौर में झामुमो और भाजपा के एक साथ आ जाने के खतरों से भी इनकार नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि कांग्रेस चाहेगी कि राज्य में किसी सरकार का अस्तित्व आ ही जाय।

जाहिर है, यदि झामुमो और कांग्रेस को वहां सरकार बनानी है, तो उन्हें लालू यादव की शर्ताें को मानना पड़ेगा। पर कांग्रेस बिहार के अपने नीतीश विकल्प को खुला रखना चाहती है। इधर जनता दल (यू) लगातार कांग्रेस से बेहतर संबंध बनाने का संकेत दे रहा है। उसने राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस का साथ दिया और प्रणब को राष्ट्रपति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नरेन्द्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने की स्थिति में जनता दल(यू) कांग्रेस के साथ भी जा सकता है। कांग्रेस लालू को अपने साथ लेकर उस विकल्प को अभी समाप्त करना शायद नहंीं चाहे। यही कारण है कि झारखंड में निकट भविष्य मे किसी झामुमो या कांग्रेस सरकार का गठन बहुत आसान नहीं दिखता। लालू यादव सम्मानपूर्ण तरीके से अपने दल का समर्थन नई सरकार को देना चाहेंगे। (संवाद)