नितिन गडकरी के राजनैतिक कैरियर पर उसी समय अनिश्चय के बादल मंडराने लगे थे, जब आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। आरोप था कि गडकरी ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के साथ साजिश कर किसानों के जमीन को हड़प लिया था। श्री केजरीवाल ने तो यहां तक आरोप लगा दिया था कि गडकरी जैसे लोगों के कारण ही महाराष्ट्र के विदर्भ के किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्योंकि उनके खेतों की ंिसंचाई के पानी का इस्तेमाल गडकरी की पूर्ति जैसी कई कंपनियां कर रही हैं और खेतो को पानी नहीं मिल पा रहा है।
कहना पड़ेगा कि केजरीवाल के पहले बड़े शिकार नितिन गडकरी हुए हैं। केजरीवाल के आरोपों के बाद भी अनेक गंभीर आरोप गडकरी पर लगे और किसी का भी वे प्रभावी तौर पर खंडन नहीं कर सके। सिर्फ अपनी ईमानदारी की दुहाई वे देते रहे और जांच की चुनौती सरकार को देते रहे। लेकिन बहुत सारी बातें बिना जांच के भी जनता को स्पष्ट हो जाती है और यह स्पष्ट हो रहा था कि जिस कंपनी को उन्होंने मंत्री रहते हुए फायदा पहुंचाया था, उसी कंपनी ने उनकी कंपनी पूर्ति को बाद में भारी धनराशि मुहैया कराई थी। यह तथ्य भी बाद में सामने आया कि उनकी पूर्ति कंपनी में कुछ फर्जी कंपनियों ने निवेश कर रखा था और उन फर्जी कंपनियों में उनके कुछ बेहद करीबी लोग शामिल थे और उनका पता भी फर्जी था।
अध्यक्ष पर इतने गंभीर आरोप लग रहे थे और पार्टी को उसका नुकसाना हो रहा था, फिर भी गडकरी अपने पद पर बने रहे, क्योंकि उन्हें आरएसएस का ठोस समर्थन मिला हुआ था। आरोपों के कारण वे गुजरात चुनाव में प्रचार भी नहीं कर पाए। हिमाचल प्रदेश में भी अंतिम समय में उन्होंने अपने आपको प्रचार से बाहर कर लिया था। वे देख रहे थे कि उनके प्रचार से उनकी पार्टी का नुकसान हो सकता है, फिर भी वे अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। पार्टी के नेता उन्हें पद छोड़ने के लिए मजबूर भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्हें आरएसएस का समर्थन मिल रहा था। संघ को खुश करने के लिए सुषमा स्वराज जैसी नेता उनका खुला समर्थन कर रही थीं। आडवाणी जरूर विरोध कर रहे थे, लेकिन अपने विरोध को सार्वजनिक नहीं कर पा रहे थे। राम जेठमलानी ने जब सार्वजनिक तौर से गडकरी का इस्तीफा मांगा तो उन्हें पार्टी से ही निलंबित कर दिया गया।
हद तो तब हो गई, जब आरएसएस के समर्थन के बूते वे दूसरी बार भी अध्यक्ष बनने के लिए तैयार दिखे। पर पद पर बना रहने और दुबारा चुनाव से फिर अध्यक्ष बनने मे फर्क होता है। उनके चुनाव को पार्टी के कुछ नेताओं ने चुनौती दे डाली। पहले महेश जेठमलानी ने उनके खिलाफ नामांकन करने की इच्छा दर्शाई। लेकिन उन्हें पता चला कि वे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की योग्यता ही नहीं रखते। उसके बाद यशवंत सिन्हा मैदान में कूदते दिखाई पड़े। यशवंत सिन्हा की संभावित उम्मीदवारी ने नितिन गडकरी के लगातार दूसरी बार भाजपा अध्यक्ष बनने की महत्वाकांक्षा पर विराम लगा दिया।
गडकरी भाजपा के लिए बोझ बन गए थे। पार्टी का कोई भी कार्यकत्र्ता इस बात को समझ सकता था, क्योंकि जब भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर कार्यकत्र्ताओं में जोश भरा जा सकता है, वैसे समय में पार्टी अध्यक्ष को ही भ्रष्टचार के आरोपों से घिरा रखना समझदारी नहीं माना जा सकता। पर आश्चर्य है कि संघ के नेताओं को यह साधारण सी बात समझ में नहीं आ रही थी। भाजपा को 2014 के लोकसभा आमचुनाव का ही नहीं, बल्कि उसके पहले हो रहे विधानसभा चुनावों का भी नये अध्यक्ष के नेतृत्व में सामना करना था। इन चुनावों में छह तो उन राज्यों में होने हैं, जहां भाजपा का बहुत कुछ दाव पर लगा हुआ है। इसी साल कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान और दिल्ली विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। झारखंड विधानसभा का चुनाव भी इसी साल हो सकता है। वैसे माहौल में गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का मतलब था कि भ्रष्टाचार जैसे प्रमुख मसले पर पार्टी द्वारा चुनावी प्रचार के दौरान चुप्पी साधे रखना।
इसका मतलब संघ के नेता जरूर समझते होंगे, लेकिन उन्हें भाजपा की सफलता से ज्यादा चिंता भाजपा पर अपने नियंत्रण की थी और इस नियंत्रण को बरकरार रखने के लिए वे गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाना चाहते थे। पर यशवंत सिन्हा की चुनौती के आगे उनकी मंशा पराजित हो गई। आडवाणी ने गडकरी का समर्थन करने में साफ इनकार कर दिया। अब यदि चुनाव हो जाते और आडवाणी खुलकर श्री सिन्हा के पक्ष में आ जाते, तो चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा का अंदरूनी कलह और आरएसएस के साथ उसकी खींचतान पूरी तरह सतह पर आ जाती। फिर तो अनुशासन के नाम पर किसी को चुप भी नहीं कराया जा सकता था। और यह भी संभव था कि श्री सिन्हा चुनाव जीत जाते। फिर तो संघ की भारी फजीहत हो जाती।
यही कारण है कि संघ ने अपनी पसंद बदल डाली। उसे गडकरी को अध्यक्ष बनाने की अपनी जिद से बाज आने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसके बाद राजनाथ सिंह पर सहमति बन गई। राजनाथ सिंह भी संघ की पसंद के रूप में ही 2006 में भाजपा के अध्यक्ष बने थे। वे गडकरी विरोधियों की पसंद के भी थे, क्योंकि गडकरी की तरह उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है। सुषमा स्वराज ने तो पहले ही अध्यक्ष बनने से मना कर दिया था, क्योकि अपनी उम्मीदवारी सामने लाकर वह संघ को नाराज नहीं करना चाहती थी। इस तरह राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने और गडकरी को अपने पांव वापस खींचने पड़े।
आरएसएस की गडकरी के मामले में नहीं चल पाना यह साबित करता है कि संघ भाजपा को अपने इशारे पर नहीं नचा सकता। यदि उसकी पसंद गलत हुई तो भाजपा के अंदर से उठा विरोध उस पसंद को खारिज भी कर सकता है। यदि भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र की अगली सरकार बनी, तो फिर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर भी विवाद उठेगा और फिर तब ंसंघ अपनी पसंद बताएगा। लेकिन वह अपनी पसंद के नेता को प्रधानमंत्री बना ही लेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। गडकरी प्रकरण की सीख यही है। (संवाद)
भाजपा अध्यक्ष पद पर राजनाथ की वापसी
आरएसएस ने कुछ भाजपा नेताओ से मुह की खाई
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-01-23 13:12
राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष दुबारा बन गए है, पर उनका अध्यक्ष बनना उतनी बड़ी घटना नहीं है, जितनी बड़ घटना नितिन गडकरी का अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर हो जाना है। श्री गडकरी को आरएसएस किसी भी कीमत पर लगातार दूसरी बार भाजपा का अध्यक्ष बनाना चाहता था। इसके लिए उसने भाजपा को अपना संविधान बदलने के लिए बाघ्य तक कर दिया था। भाजपा के पहले के संविधान के मुताबिक कोई नेता लगातार दूसरी बार पार्टी का अध्यक्ष नहीं बन सकता। लेकिन गडकरी को दुबारा यह पद देने के लिए संविधान की यह व्यवस्था हटा दी गई थी।