उन्होंने पिछड़े वर्गों, दलितों और आदिवासियों को सबसे ज्यादा भ्रष्ट बताते हुए उनके नेताओं के भ्रष्टाचार की सराहना तक कर डाली है और कहा है कि उनके भ्रष्टाचार में समाज में समता पैदा करने की ताकत है। वे इतना ही तक नहीं रुके हैं। उन्होंने यह भी कह डाला है कि दलित, पिछड़े और आदिवासी नेताओं में जबतक भ्रष्टाचार है, तबतक हमारा गणतंत्र सुरक्षित है। उनका यह वक्तव्य भी कम खतरनाक और आपत्तिजनक नहीं।

क्या भ्रष्टाचार से सामाजिक समता में समता बढ़ती है? क्या कोई इस तरह का बयान देकर अपने आपको समाजशास्त्री कहलाने के लायक समझ सकता है? यहां तथ्य यह है कि आशीष नंदी को एक बहुत बड़ा समाजशास्त्री कहा जाता है। समाजशास्त्री कहने से भी लोगों का मन पूरा नहीं भरता, तो उन्हें समाज वैज्ञानिक कह डालता है। आखिर श्री नंदी इस तरह की उलूल जलूल बातें क्यों कर रहे हैं? इसके पीछे उनका मकसद क्या है? वे क्यों पिछड़े, दलितो और आदिवासियों के नेताओं और अधिकारियों को महिमामंडित कर रहे हैं? वे क्यों भ्रष्टाचार को हमारे गणतंत्र की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य बता रहे हैं? किसी भी चिंतनशील व्यक्ति के दिमाग में इस तरह के अनेक सवाल पैदा हो सकते हैं। इन सवालों का सही जवाब तो खुद आशीष नंदी ही दे सकते हैं। लेकिन जिस माहौल मंे उन्होंने इस तरह की बातें की है, उसे देखकर हम कुछ अनुमान तो लगा ही सकते हैं।

आज भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मसला है। सच कहा जाय तो आज के भारत का सबसे बड़ा मसला भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण पूरा देश आंदोलित हो रहा है। देश की लगभग सभी पार्टियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केन्द्र या राज्य या दोनों में सत्ता मंे रह चुकी हैं। उनके सभी नेताओं को कभी न कभी सत्ता का साथ मिल चुका है। जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ जनरोष है वह सत्ता से ही जुड़ा भ्रष्टाचार है। चूंकि देश की जनता सभी पार्टियांे को और उनके नेताओं को कभी न कभी किसी न किसी रूप में सत्ता में बैठा चुकी है और सभी के सभी भ्रष्टाचार को रोक पाने में विफल रहे हैं, इसलिए देश की जनता भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उन पर भरोसा नहीं करती। वे भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलंे, इसे भी देश की जनता पसंद नहीं करती है, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ दिया गया उनका कोई भी बयान जवानी जमा खर्च माना जाता है।

ऐसे माहौल में लगता है आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री अब भ्रष्टाचार के बचाव में आ गए हैं और इसके फायदे क्या क्या हो सकते हैं, इसके लिए सैद्धांतिक आधार तैयार करने मंे लग गए हैं। इसके लिए ही पहले वे तो समुदाय के समुदाय को ही भ्रष्ट कह देते हैं और उसके बाद उन समुदायों के भ्रष्ट नेताओं को रिपब्लिक को बचाने वाला महान कार्य करते हुए दिखा देते हैं। वे यह भी कह देते हैं कि उनके भ्रष्टाचार से सामाजिक समता का युग आ रहा है।

यह भ्रष्टाचार को न्यायोचित ठहराने के एक बौद्धिक षड्यंत्र के अलावा और कुछ भी नहीं। यह एक साजिश है दलित, पिछड़े और आदिवासी तबकों के लोगों को भ्रष्टाचार के आंदोलन का विरोधी बनाने की। श्री नंदी जैसे तथाकथित समाज शास्त्रियों को लगता है कि इन तबकों के लोग अशिक्षित और बेवकूफ हैं और यह मान लेंगे कि उनके समुदाय के नेता और अधिकारी भ्रष्ट होकर उनपर बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं और वे अपनी नहीं, बल्कि उनकी गरीबी दूर कर रहे हैं।

आशीष कहते हैं कि पिछड़े, दलित और आदिवासियों के नेताओं और अधिकारियों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार से समता बढ़ती है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वे भ्रष्टाचार द्वारा जमा किए गए काले धन को क्या अपनी जाति और समुदाय के लोगों में क्या बांट देते हैं? यदि नहीं बांटते हैं तो फिर समता कहां से आई? हमारे देश की सामाजिक हकीकत तो यह है कि इन वर्गों के अनेक लोगों ने समृद्धि पाने के बाद अपनी ब्याही गई पत्नियों तक को छोड़ डाला है। तो फिर उनके पास भ्रष्टाचार से कमाई गई राशि से उनके समाज के लोगों को क्या मिला।

दूसरी ओर सच्चाई यह है कि समाज के कमजोर वर्गो के लिए सरकार द्वारा आबटित खरबों की राशि को भ्रष्टाचार के कारण लाभान्वितों तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। समाज के कमजोर वर्गांे के लिए केन्द्र और राज्य की सरकारों ने अनेक क्ल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। उनके नाम पर हम साल अरबों ही नहीं खरबों रुपये राज्य और केन्द्र सरकारों द्वारा खर्च की जाती है, लेकिन उनका अधिकांश या लगभग सभी हिस्सा लूट लिया जाता है। उनके लिए बनी तमाम योजनाएं भ्रष्टाचार का शिकार हो गई हैं। यदि आजादी के बाद समाज के कमजोर वर्गों के लिए चलाई गई योजनाएं सफल होतीं और उनके नाम पर खर्च किया गया पैसा वास्तव में उन्हीें के लिए खर्च किया जाता, तो अब तक भारत का समाज वास्तव में समतावादी समाज बनता। वास्तव में तब सामाजिक न्याय एक हकीकत बन जाता, लेकिन यदि यह ऐसा नहीं हो पाया है, तो इसका एकमात्र कारण वह भ्रष्टाचार है, जिस भ्रष्टाचार को महिमामंडित करने का ठेका आशीष नंदी ने ले रखा हैं।

जाहिर है भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन ही समतावादी समाज बनाने की गारंटी है, कमजोर वर्गों के मजबूत लोगों का भ्रष्टाचार नहीं। हां, उनका भ्रष्टाचार व्यवस्था की यथास्थितिवादी शक्तियों को अवश्य प्रश्रय देता है। समाज के कमजोर वर्गों के लोग जातिवादी मानसिकता के तहत अपनी जाति अथवा समुदाय के नेताओं को इसलिए मत देते हैं कि वे व्यवस्था को बदलकर उनके अनुकूल करें, पर भ्रष्टाचार में लिप्त होकर वे अपना वादा भूल जाते हैं। एक बार भ्रष्टाचार में लिप्त होने के बाद वे खुद को एक ऐसी जंजीर में जकड़ा हुआ पाते हैं, जिसकी जकड़ को ढीली करने में ही वे अपनी सारी ऊर्जा समाप्त करते रहते हैं। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करने वाले मुलायम, लालू और मायावती यदि आज कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ होते हुए भी उसका समर्थन कर रहे हैं, तो इसका कारण उनके ऊपर चल रहे भ्रष्टाचार के मामले हैं, जिनकी जंजीरों में वे जकड़े हुए हैं।

श्री नंदी कह तो रहे हैं कि जबतक वे भ्रष्ट हैं, तबतक देश का गणतंत्र सुरक्षित है। गणतंत्र से श्री नंदी का आखिर आशय क्या है? क्या इशारों में वे यह तो नहीं कहना चाह रहे हैं कि जब तक वंचित समुदायों के ये नेता भ्रष्ट हैं, तब तक आभिजात्यवादी तंत्र को कोई खतरा नहीं है? उनका आशय चाहे जो भी हो, भ्रष्टाचार को महिमामंडित करने की कोशिश करके वे अपने आपको हास्यास्पद बना रहे हैं। (संवाद)