इस तरह की चिंता को समझा जा सकता है। पिछले कई दशकों से अमेरिका और बांग्लादेश के संवंध अच्छे नहीं चल रहे हैं। बांग्लादेश के पुराने लोग इस बात को नहीं भूल सकते कि 1970-71 के मुक्ति संग्राम के समय अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया था। उस समय वहां के राष्ट्रपति निक्सन थे, जिन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बांग्लादेश के नरसंहार की पूरी अनदेखी कर दी थी। बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद अमेरिका ने उसे मान्यता देने में भी बहुत देरी की थी। उसके द्वारा की जा रही देरी के कारण पश्चिमी जगत के अधिकांश देश भी बांग्लादेश को मान्यता देने में विलंब कर रहे थे। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति मुख्य सलाहकार किसिंजर ने बांग्लादेश को ’’बास्केट केस’’ कहा था और भारतीयो को ’’बहुत आक्रामक’’ और ’’बास्टर्ड’’ तक कह डाला था।
आवामी लीग द्वारा शासित बांग्लादेश के प्रति अमेरिका का अविश्वास जारी रहा। 15 अगस्त, 1975 को जब एक अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत अमेरिकी सेना से जुड़े कुछ लोगों ने बांग्लादेश के संस्थापका मुजीब रहमान की उनके लगभग पूरे परिवार सहित हत्या कर दी थी, तब भी अमेरिका का एक सेक्शन उस पर द्रवित नहीं हुआ था। अमेरिका सहित पश्चिमी के अधिकांश देशों ने कभी भी आवामी लीग को इसलिए माफ नहीं किया, क्योंकि उसके कारण पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। गौरतलब है कि पाकिस्तान पश्चिमी देशों का डार्लिंग शुरू से ही बना हुआ है।
लेकिन उस समय अमेरिका के कान खड़े हो गए थे, जब बांग्लादेश नेशनल पार्टी की खालेद जिया की सरकार के कार्यकाल में वहां के कट्टरवादी मुस्लिम संगठन उस देश का तालिबीकरण पर उतारु हो रहे थे। उन्होंने खुलकर अलकायदा का समर्थन किया था। इसके कारण अमेरिका के पास आवामी लीग की नेता शेख हसीना वाजेद के साथ रिश्ते सुधारने के अलावा और कोई विकल्प नही ंबच गया था।
लेकिन हसीना वाजेद के साथ तालमेल बैठाकर चलना अमेरिकी प्रशासन को रास नहीं आया। शेख हसीना जैसी एक राष्ट्रवादी नेता अमेरिका के गले नहीं उतरी। जब बांग्लादेश में एक कामचलऊ सरकार थी, तो अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों ने ’’ माइनस टू’’ की अवधारणा पेश की, जिसके तहत खालेदा जिया और हसीना वाजेद को माइनस करके एक तीसरी ताकत को वहां खड़ा करना था। उस तीसरी ताकत का नेतृत्व करने के लिए नोबल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनूस को चुना गया, जो माइक्रोफाइनांस के पिता कहे जाते हैं।
मोहम्मद युनूस को भी वह आइडिया पसंद आया, लेकिन उसके बाद उनकी वहां दुर्गति हो गई। बांग्लादेश के लोग पश्चिमी देशों द्वारा पेश किए गए किसी नेता अथवा एजेंडा को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। आवामी लीग के साथ मोहम्मद युनूस का संबंध कितना तीखा हो गया था, यह तो सब जानते हैं, लेकिन बीएनपी की खालेदा जिया ने भी उन्हें पसंद नहीं किया। वह न तो युनूस को अपना प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखना पसंद कर रही थी और न ही उनसे कोई राजनैतिक साझेदारी करना चाह रही थी। बांग्लादेश के लोगों को भी लग रहा था कि मोहम्मद युनूस को आगे करके अमेरिका बांग्लादेश के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करना चाह रहा है।
यही कारण है कि आतंक के खिलाफ लड़ाई के नाम पर बार बार ढाका की यात्रा कर रहे अमेरिकी अधिकारियों की मंशा पर बांग्लादेश के लोगों के मन में संशय पैदा हो गया है। लेकिन एक ऐसा काॅमन क्षेत्र भी हैं, जहां आवामी लीग और अमेरिका के हित एक हो जाते हैं और वह है बांग्लादेश में कट्टर इस्लामवादी संगठनों पर लगाम लगाना। इसलिए वर्तमान माहौल में अमेरिका के खुफिया अधिकारियों की बांग्लादेश यात्रा स्वाभाविक है।
लेकिन ढाका में अमेरिकी खुफिया एजेंसी का दफ्तर खुलना भारत के लिए भी चिंता का कारण होना चाहिए। इसका कारण यह है कि यदि इस तरह का कोई कार्यालय वहां खुलता है, तो उसका कामकात सिर्फ बांग्लादेश तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि भारत भी उसकी जद में आ जाएगा। भारत के साथ साथ वह म्यान्मार और चीन तक को अपनी गतिविधियों के दायरे में ला सकता है। (संवाद)
क्या बांग्लादेश बड़ी ताकतों के खेल का मैदान बन गया है?
पश्चिमी देशों ने हमेशा इसके मामलों में दखल दी है
आशीष बिश्वास - 2013-02-25 11:56
ढाका के राजनैतिक क्षेत्रों में आजकल इस बात को लेकर बहुत ही हलचल है कि अमेरिकी एजेंसी फेडरल ब्यूरो आफ इन्वेस्टिगेशन या किसी अन्य एजेंसी का वहां दफ्तर खुलने वाला है। अमेरिकी अधिकारियों की अनेक यात्राओं के बाद इस तरह का प्रस्ताव आने की खबर है।