भाजपा के नेता यशवंत सिन्हा ने संसद में कहा था कि भारत सरकार को इस मसले पर श्रीलंका के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार करना चाहिए। श्री सिन्हा का कहना था कि पिछले 4 सालों से डाले जा रहे दबाव के बावजूद श्रीलंका की सरकार ने वहां के तमिलों की चिंताओं को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं किया है।

आगामी 22 मार्च को प्रस्ताव पर मतदान होने हैं और तबतक निर्णय लेने के लिए भारत के पास काफी समय है। पिछले साल भारत ने अमेरिका के साथ इस प्रस्ताव का पक्ष लिया था कि श्रीलंका को 2009 में तमिल टाइगर्स के खिलाफ हुई कार्रवाई में की गई ज्यादतियों की जांच करानी चाहिए। भारत सरकार के उस रुख से श्रीलंका की राजपक्षे सरकार परेशान दिख रही थी, लेकिन भारत सरकार को यह संकेत भेजना ही था कि वह श्रीलंका के तमिल मुद्दे का जल्द से जल्द समाधान चाहता है। लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी श्रीलंका की ओर से उस मसले के समाधान के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई जा रही है। राजपक्षे सरकार के रवैये से तमिलनाडु के लागों और भारत की सरकार का धैर्य टूटता जा रहा है। पर भारत सरकार और भी कड़ा लाइन इसलिए नहीं ले पा रही है कि श्रीलंका से इसके दोस्ताना संबंध हैं और यह अपने इस संबंध को बनाए रखने में दिलचस्पी रखती है। भारत और श्रीलंका के आपसी रिश्तों में तमिल समस्या के साथ साथ उसके साथ बढ़ते आर्थिक व व्यापारिक रिश्ते भी भूमिका अदा कर रहे हैं। भारत नहीं चाहता कि सिर्फ तमिल मसले को ही दोनों देशों के बीच के संबंधों को आधार बना दिया जाय। इस बीच राजपक्षे ने सिंहालियांे के बीच अपनी स्थिति मजबूत कर ली है और वह उस मजबूत स्थिति को बनाए रखने के लिए तमिल चिंता को महत्व नहीं दे रही है। पर इसके कारण वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का पात्र बन रही हैं।

श्रीलंका के तमिल मसले पर भारत के तमिलनाडु में राजनैतिक प्रतिस्पर्धा का दौर चल रहा है। इसके कारण यह मसला भारत सरकार के लिए भी बेहद संवेदनशील बन गया है। इसकी संवेदनशीलता के कारण भारत भी इस पर साफ साफ लाइन नहीं ले पाता। तमिलनाडु की दोनों मुख्य पार्टियां अब इस मसले पर एक तरह का विचार रखती हैं, क्योंकि अब लिट्टे का वजूद नहीं रहा। अन्य पार्टियां भी वहां के तमिलों की दशा को लेकर उनसे सहानुभूति रखती हैं।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इस अवसर का इस्तेमाल करते हुए बहुत की कड़ी लाइन ले रखी है। वे चाहती है कि दिल्ली राजपक्षे द्वारा किए गए युद्ध अपराध के खिलाफ खुलकर सामने आ जाए। वह 2009 से ही इस मसले पर लगातार बोल रही हैं और 2011 में सत्ता में आने के बाद तो उन्होंने विधानसभा में इससे संबंधित एक प्रस्ताव तक पास करवा दिया था। उस प्रस्ताव के तहत श्रीलंका के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाने तक की मांग कर दी गई थी। अन्य पार्टियां भी दिल्ली सरकार से यही कह रही है कि वह इस मसले पर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के साथ मिलकर काम करे। जयललिता को पता है कि श्रीलंका का तमिल मसला और श्रीलंका की सेना द्वारा किए गए युद्ध अपराध का मुद्दा भारत के तमिलनाडु की राजनीति मंे भी खास महत्व रखता है। वह 2014 के लोकसभा चुनाव में इसे भुनाना भी चाहेगी, क्योंकि वह ज्यादा से ज्यादा सीटें लोकसभा में जीतकर केन्द्र सरकार के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहती है।

श्रीलंका सरकार के खिलाफ गुस्सा ब्रिटिश टेलिविजन चैनल 4 द्वारा दिखाए एक विडियों के बाद बहुत बढ़ गया है। उसमें लिट्टे के प्रमुख प्रभाकरण के 12 साल के बेटे की मौत को दिखाया गया है। उसमें निर्दोष नागरिकों की हत्या को भी दिखाया गया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में एक के बाद एक श्रीलंका सरकार को निर्दोष लोगों की हत्या का दोषी बताया है।

तमिलनाडु की पार्टियों को चिंता इस बात की भी है कि श्रीलंका के तमिल बहुमत वाले इलाके में सिंहाली आबादी को योजनाबद्ध तरीके से बसाया जा रहा है। तमिल इलाकों मंे सेना की संख्या को भी बढ़ाया जा रहा है और सेना के कैंटोनमेंट भी वहां भारी संख्या में बनाए जा रहे हैं। इन सबके कारण उन इलाकों मंे तमिलों के अल्पमत में आ जाने के पूरे आसार बनते जा रहे हैं।

अब समय आ गया है कि भारत की सरकार को अपने देश के लोगों की राय का सम्मान करना होगा। राजपक्षे सरकार लगातार भारत सरकार की आपत्तियों को अनदेखा कर रही है। इसलिए भारत अब इसे हल्केपन से नहीं ले सकता। उस श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग में मतदान करना ही चाहिए। (संवाद)