लिट्टे ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भी हत्या कर डाली। उनके तो टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे और उसमें एक महिला सुसायड बम्बर का इस्तेमाल किया गया था। उसके दो साल के बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की हत्या की गई। एक अन्य राष्ट्रपति चन्द्रिका कुमारातुंगे की हत्या की भी कोशिश की गई। उनकी जान तो बची, लेकिन एक आंख चली गई। अनेक सिंहाली मंत्रियों को भी निशाना बनाया गया। विपक्षी तमिल राजनीतिज्ञों को भी लिट्टे ने नहीं बख्सा। लिट्टे प्रमुख अपने किसी विरोधी को बर्दाश्त नहीं करता था, भले ही वह खुद उसके अपने समुदाय का हो।

इस संदर्भ में अमेरिका द्वारा पेश और संयुक्त राष्ट्र मावाधिकार परिषद द्वारा पारित श्रीलंका से संबंधित प्रस्ताव लिट्टे द्वारा किए गए अत्याचारों और ज्यादतियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा है। प्रस्ताव में कहा गया है कि श्रीलंका सरकार अपने सेना द्वारा तमिल विद्रोहियों के खिलाफ हुई ज्यादती की जांच करे और वह उन ज्यादतियों की निंदा भी करता है। हालांकि श्रीलंका के लिए राहत की बात यह है कि प्रस्ताव में उन ज्यादतियों की अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग नहीं की गई है। उस प्रस्ताव के पक्ष में परिषद में 25 मत पड़े। 13 मत उसके खिलाफ भी पड़े और 8 सदस्यों ने मतदान के दौरान अपने आपको अनुपस्थित कर दिया। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। इस तरह वह श्रीलंका के एक कदम और भी निकट आ गया। उसने प्रस्ताव के खिलाफ वोट देते हुए कहा कि इस प्रस्ताव से श्रीलंका में चल रही शांति की प्रक्रिया प्रभावित होगी।

भारत उस प्रस्ताव में कुछ कड़ा संशोधन करना चाहता था, क्योंकि उसे अपने तमिलनाडु राज्य में तमिलों की दशा के प्रति घोर चिंता की चिंता थी, पर अमेरिका ने उसे वैसा करने से रोका। उसने भारत को कहा कि प्रस्ताव ऐसा हो, जिसे ज्यादा से ज्यादा सदस्यों का समर्थन मिले। भारत द्वारा सुझाए गए संशोधन को पारित कराना मुश्किल था। लेकिन भारत के प्रतिनिधि को उस पर चर्चा के दौरान हस्तक्षेप करने की इजाजत दे दी गई।

आशा के अनुरूप श्रीलंका के प्रतिनिधि ने उस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया और कहा कि यह प्रस्ताव तथ्यों की गलत व्याख्या पर आधारित है। प्रस्ताव लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करता है जो आधारहीन हैं। इसक कारण शांति और समझ की बहाली की प्रक्रिया को घक्का लग सकता है।

डीएमके के प्रमुख करुणानिधि इस राजनैतिक परिदृश्य में गंदी राजनीति खेलने में लगे हुए हैं। तमिलनाडु की राजनीति में वे अभी हाशिए पर आ गए हैं और इसलिए श्रीलंका के संकट के नाम पर तमिल कार्ड खेलने में लगे हुए हैं, जबकि लिट्टे ने श्रीलंका की सिंहाली आबादी पर कम अत्याचार नहीं किए। उग्रवादी संगठन ने अपने लोगों को भी नहीं छोड़ा। श्रीलंका और भारत के जो तमिल इसके साथ नहीं खड़े होते थे, उनकी भी हत्या लिट्टे उग्रवादी कर दिया करते थे।

जब लोकसभा के चुनाव के मात्र एक साल ही बचे हों, डीएमके यूपीए सरकार से बाहर होकर कोई बड़ा दांव नहीं खेल रहा है। चुनाव के पहले सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर होने के अपने फायदे है। अब जब भी लोकसभा का चुनाव होगा, डीएमके न तो उस समय राज्य की सत्ता में होगी और न ही केन्द्र की सत्ता में। श्रीलंका में हुए तमिलों पर तमिलनाडु में हो रहे आंदोलन का शिकार डीएमके को भी बनना था, इसलिए उसे लगा कि उस तरह शिकार होने से बेहतर है कि सरकार से ही बाहर हो जाएं और खुद भी उस आंदोलन का हिस्सा हो जायं। इसलिए उसने इस मसले पर और भी आक्रामक होने का फैसला किया। अब वह यूपीए सरकार की विदेश नीति की खुलकर आलोचना कर सकती है। (संवाद)