इसी तरह का बदलाव पशिचम बंगाल में बुदधदेव भटटाचार्य ने किया था। उस समय वे वहां के मुख्यमंत्री थे। उन्हें अहसास हो गया था कि माक्र्सवाद उनके राज्य को फायदा नहीं पहुंचा रहा है, बलिक नुकसान पहुंचा रहा है। इसके कारण उन्होंने निजी पूंजी को बढ़ावा देना शुरू कर दिया, हालांकि इसके कारण उनके वर्ग शत्रुओं को फायदा होना था।

यह दूसरी बात है कि श्री भटटाचार्य ने अपनी बदली नीति को लागू करने में गड़बड़ी कर दी। उन्होंने उसे लागू करने में स्टालिनिस्ट रणनीति का सहारा लिया, क्योंकि वह वही रणनीति जानते थे। पूंजीपतियों के लिए जमीन अधिग्रहण करने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के वर्करों को किसानों से भिड़ा दिया।

बुदधदेव भले वहां विफल हो गए हों, लेकिन इतना तो उन्होंने जाहिर कर ही दिया कि माक्र्सवाद के रास्ते को वे अपने राज्य के लिए सही नहीं मान रहे थे। उन्होंने यह देख लिया था कि ट्रेड यूनियनिज्म उनके राज्य को खोखला बना रहा था, क्योंकि उसके कारण पूंजी का राज्य से पलायन हो रहा था।

2002 के दंगे के बाद नरेन्द्र मोदी ने भी यह देख लिया था कि उस तरह के दंगे से वे गुजरात में तो चुनाव जीत सकते हैं, लेकिन वे देश के अन्य भागाें में स्वीकार नहीं किए जा सकते। वे देश में ही नहीं, बलिक विदेशों में भी राजनैतिक अछूत करार दिए जाएंगे।

इसमें कोर्इ शक नहीं कि आज भी नरेन्द्र मोदी को बहुत लोग पसंद नहीं करते। व्यापारिक घरानों में उनकी जयजयकार होती हो और गोषिठयों में भी वे लोगों की तालियां पाते हों, लेकिन अभी भी उनके स्रोताओं में उनसे एक खास प्रकार की विरकित होती है, हालांकि मोदी खुद बेहतर बनने की कोशिश करते रहते हैं।

इसके कारण ही यूरोप के राजनयों ने उन्हें अपने आपसे 10 साल दूर रखा और यही कारण है कि आज भी अमेरिकी सरकार उन्हें नहीं पचा पा रही। उनकी यह छवि सिर्फ इसलिए नहीं बनी हुर्इ है, कयोंकि वे गुजरात दंगों के लिए खेद नहीं व्यक्त कर रहे, बलिक इसका कारण यह है कि उन्हें उन दंगों के लिए तकलीफ का इजहार करते भी किसी ने नहीं देखा।

आज नरेन्द्र मोदी विकास और उधोगों को अपनी प्राथमिकता बता रहे हैं, लेकिन जब वे 2001 में गुंजरात के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने यह क्यों नहीं बताया था कि उनकी प्राथमिकता संघ का गोलवलकरवादी दर्शन नहीं, बलिक विकास हैए जिसका फायदा समाज के सभी वर्गों को होता है?

उस समय वे उस तरह का कोर्इ संकेत नहीं दे रहे थे। सच तो यह है कि अगले एक साल तक उन्होंने उस तरह का कोर्इ संकेत नहीं दिया। तब तो उनका पूरा ध्यान न केवल मुसलमानों के दानवीकरण करने का था, बलिक वे र्इसाइयों को भी नहीं छोडऋ रहे थे। तब वे उस समय के र्इसार्इ मुख्य निर्वाचन आयोग का पूरा नाम जेम्स माइकल लिंगदोह लिया करते थे।

उनका नाम लेकर वह अपने समर्थकों को बताना चाहते थे कि एक र्इसार्इ मुख्य निर्वाचन आयुक्त पर निष्पक्ष चुनाव के लिए विश्वास नहीं किया जा सकता।

उनकी संकीर्ण दृषिट वहीं तक सीमित नहीं रही, बलिक उन्होंने अपने सहकर्मी संजय जोशी को भी नहीं छोड़ा। भगवा बि्रगेड में उन्होंने संंजय जोशी की ऐसी तैसी कर दी। श्री जोशी के विरोध में उन्होंने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनावों में प्रचार तक नहीं किया।

उन्होंने श्री जोशी को पार्टी में महत्व दिए जाने के खिलाफ पार्टी कार्यकारिणी की बैठकों में जाना भी बंद कर दिया। उनके दबाव में आकर तब के पार्टी अध्यक्ष गडकरी को जोशी को पार्टी से बाहर निकालना पड़ा था और उसके बाद ही नरेन्द्र मोदी ने पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेना शुरू किया।

अब सांप्रदायिक कार्ड की जगह मोदी विकास के कार्ड को अपनी रणनीति बना रहे हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि उनकी नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर और उन्हें पता है कि इस पद पर बैठने के लिए उन्हें गुजरात से बाहर भी स्वीकार्य होना पड़ेगा। (संवाद)