सवाल उठता है कि जब ऐसा संभव नहीं है, फिर भी वे इस तरह की बातें क्यों कर रहे हैं कि इसी वित्त वर्ष में या 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले बिहार को पिछड़े राज्य का दर्जा या पैकेज दिया जाएगा? यदि नीतीश और यूपीए में इस बात की सहमति भी बन जाय कि बिहार को पिछड़े राज्य का दर्जा मिलना है, तो इस सहमति को 14वें वित्त आयोग की पुषिट के बिना लागू नहीं किया जा सकता है और 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट 2014 के अक्टूबर महीने के पहले आ ही नहीं सकती। 13वें वित्त आयोग ने बिहार को उस तरह का दर्जा नहीं दिया है। यह इस समय मानना मूर्खतापूर्ण होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र में यूपीए की सरकार बनेगी।

यदि इस तरह का स्पेशल पैकेज देना केन्द्र सरकार के लिए संभव होता, तो यूपीए अपनी मूल सहयोगी पार्टी तृणमूल को खोता ही नहीं और विशेष सहायता की उसकी मांग को कब का पूरा कर दिया जाता। केन्द्र को राज्य 13वें वित्त आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तय किए गए मानकों के आधार पर सहायता देता है। यदि उन मानकों को परे जाकर केन्द्र सरकार फैसला ले पाती, तो पशिचम बंगाल को सहायता देने की ममता की मांग को स्वीकार करने में केन्द्र की सरकार मना क्यों करती और उसे गठबंधन से क्यों बाहर जाने देती? ममता बनर्जी ने तो किसी पिछड़े राज्य के दर्जे की मांग भी नहीं की थी। उन्होंने तो सिर्फ कुछ समय के लिए राज्य को दिए गए कर्ज से ब्याज मुकित की मांग की थी। लेकिन तकनीकी कारणों का हवाला देकर केन्द्र की सरकार ने ममता की मांग को मानने से इनकार कर दिया। गौरतलब है कि ममता बनर्जी की सरकार ने 2 लाख करोड़ रुपये के कर्ज की विरासत पार्इ है। इस कर्ज की सर्विसिंग में बंगाल सरकार को सालाना 25 हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं और इसके कारण पशिचम बंगाल के पास मुशिकल से अपना दैनिक कामकाज चलाने के लिए पैसे रह जाते हैं। कर्मचारियों के वेतन देने के भी लाले पड़ जाते हैं।

नीतीश कुमार और यूपीए के बीच एक मिलाजुला खेल चल रहा है और इसका संबंध जोड़तोड़ और गठबंधन की राजनीति से है। यह गठबंधन की राजनीति चुनाव पूर्व और चुनाव बाद दोनों सूरतों को ध्यान में रखकर की जा रही है। सोनिया गांधी के लिए अगला लोकसभा चुनाव जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी यह नीतीश कुमार के लिए भी है। नीतीश कुमार का भविष्य ही इस लोकसभा चुनाव में दांव पर लगा हुआ है। उसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव की चिंता भी नीतीश को सता रही है। यदि केन्द्र सरकार सिदधांत तौर पर भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग मान लेती है और 14वे वित्त आयोग के पास इसे अपनी स्वीकृति के साथ भेजने की धोषणा करती है, तो इससे नीतीश कुमार का चुनावी दांव काम करने लगेगा। और यदि केन्द्र सरकार ने ऐसा करने से साफ मना भी कर दिया, तो इसके कारण बिहार के लोगों के असंतोष को भड़का कर नीतीश अपनी चुनावी राजनीति कर सकते हैं।

14वें वित्त आयोग के चेयरमैन भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर वार्इ वी रेडडी हैं। उसके कुल पांच सदस्य हैं और उसे क्या करना है, इसका एजेंडा भी तय कर दिया गया है।

लाख टके का सवाल यह है कि नीतीश कुमार बिहार को पिछडे राज्य का ब्रांड क्यों दिलाना चाहते हैं, जबकि पिछले 7 साल से वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ अपने को बेहतर मुख्यमंत्री दिखाने की प्रतियोगिता कर रहे हैं और अपने राज्य के विकास के बढ़चढ़कर दावे कर रहे हैं? नरेन्द्र मोदी विकास के गुजरात माडल की बात करते हैं, तो नीतीश कुमार बिहार माडल की बात करते हैं। वे बिहार के विकास की चर्चा करने का कोर्इ मौका नहीं गंवाते। अब यदि उन्होंने पिछले 7 साल में बिहार का इतना विकास कर ही दिया है, तो फिर वे क्यों चाहते हैं कि केन्द्र सरकार उनके विकसित राज्य को पिछड़े राज्य का दर्जा दे? क्या वह ऐसा करके केन्द्र सरकार से और पैसा पाना चाहते हैं? सवाल उठता है कि उन्हें कितना अतिरिक्त पैसा केन्द्र सरकार से चाहिए? आखिर कितना पैसा लेकर कितने समय में वे अपने राज्य को बैकवर्ड से फारवर्ड बना देंगे? अभी तो 28 राज्यों में बिहार को सकल प्रदेश उत्पाद के मानक पर 13वां स्थान प्राप्त है। यह पंजाब से एक सीढ़ी नीचे है और उड़ीसा से एक पायदान ऊपर। इसके बावजूद यह राज्य सरकार द्वारा राजस्व उगाही के मामले में सबसे पीछे है और इसकी खराब आर्थिक हालत का सबसे बड़ा कारण यही है।(संवाद)