कांग्रेस की अंधभक्ति परंपरा और उसके प्रभाव को ध्यान में रखें तो यह मानने में कोई समस्या नहीं होगी कि आने वाले समय में ऐसे बयानों की होड़ लग जाएगी। जिस तरह 18 मई 2004 को सोनिया गांधी द्वारा संसदीय दल की बैठक में अंतरात्मा की आवाज का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री बनने से इनकार के बाद संसदीय सौंध की बैठक से लेकर 10 जनपथ तक छाती पीटने वालों की होड़ लग गई थी उसे हम भूले नहीं हैं। तो क्या कांग्रेस की ओर से अगले चुनाव में राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे? आखिर उम्मीदवार होंगे तभी तो वे पार्टी या गठजोड़ के बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री बनेंगे। ऐसा तो नहीं हो सकता कि उम्मीदवार कोई हो और परिणाम के तत्काल बाद राहुल को उसके स्थान पर प्रधानमंत्री बना दिया जाए।
ध्यान रखने की बात है कि राहुल गांधी ने पिछले 5 मार्च को अपने सांसदों से मुलाकात के दौरान कहा कि वे न शादी करना चाहते हैं, न प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे तो केवल राजनीति का चरित्र बदलने के लिए काम करना चाहते हैं। उनके अनुसार सभी पार्टियों में जो हाई कमान की संस्कृति है, पैराशूट से नेता उतारने की संस्कृति है उसे बदलकर दलों में सारे कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए काम करेंगे। यह ऐसी घोषणा थी जिसने कांग्रेस के रणनीतिकारों, 10 जनपथ के वफादारों और परिवार की बदौलत सत्ता में बने और भविष्य में कायम रहने की उम्मीद पालने वालांे को एकबारगी सन्न कर दिया। कांग्रेस पर नजर रखने वाले जानते हैं कि किस तरह से इस बयान के बाद खलबली मच गई थी। कांग्र्रेस के चरित्र को देखते हुए यह बिल्कुल स्वाभाविक था। 18 जनवरी को जयपुर चिंतन शिविर में राहुल को नंबर दो स्थान पर प्रोन्नत करने के बाद माना जा रहा था कि अब तो केवल चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की घोषणा करना शेष है। 10 जनपथ के नजदीकी रणनीतिकार इसे अपनी लंबी मुहिम की सफलता मान रहे थे। इसके पूर्व लोकसभा चुनाव तैयारी संबंधी मुख्य समिति एवं तीन उपसमितियों की कमान उनके हाथों सौंपने के बाद तो भावी चुनाव में उनके नेतृत्व को लेकर वैसे भी संदेह नहीं था। सच तो यह है कि यदि सोनिया या राहुल की ओर से हल्का संकेत मिल जाता या स्वयं को उनका वफादार कहने वालों की आवाज पर वे चुप भी रह जाते तो डाॅ. मनमोहन सिंह को उतारकर वे किसी क्षण राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश करते। आखिर 15 वर्ष पूर्व सीताराम केसरी को हटाकर इसी प्रकार सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन दोनों माता पुत्र ने ऐसा कोई संकेत दिया नहीं, इसलिए ये मन मसोसते रहे। राहुल के बयान से फिर इनको धक्का लगा। किंतु अचानक उनकी बात पर प्रतिक्रिया देने का साहस किसी को था नहीं, इसलिए बयान आने में तीन सप्ताह का समय लग गया।
दिग्विजय सिंह ने अपने पक्ष में दोहरे नेतृत्व का प्रयोग अच्छा नहीं होने का जो तर्क दिया उस पर हालांकि पार्टी महासचित जनार्दन द्विवेदी ने स्पष्टीकरण दे दिया है। पर यह स्पष्टीकरण आम कांग्रेसी की आवाज नहीं है। एक ओर कांग्रेस पार्टी, संसदीय दल एवं संप्रग की अध्यक्षा सोनिया गांधी हैं तो प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह और इससे सत्ता के दो केन्द्र हो जाते हैं। यह प्रश्न विपक्ष की ओर से लगातार उठता रहा है, पर दिग्विजय का संदर्भ और सोच भिन्न है। असल में उनका इशारा इस ओर है कि नेहरु इंदिरा परिवार के वंशज के पास ही कांग्रेस के कार्यकर्ता व आम लोग वास्तविक आॅथोरिटी मानते हैं, जिससे प्रधानमंत्री को लेकर अच्छी धारणा नहीं बनती। हालांकि, दिग्विजय ने भी कहा कि सोनिया गांधी ने संप्रग सरकार के दोनों कार्यकालों के दौरान कामकाज में दखलअंदाजी नहीं की, लेकिन सत्ता की अथोरिटी को लेकर आम धारणा यही बनी रही और इससे समस्याएं भी उत्पन्न हुईं। यदि सारी औथोरिटी एक व्यक्ति के पास मान लिए जाने की स्थिति हो तो यह सबके लिए बेहतर होगा। वैसे दिग्विजय राहुल के बयान को गलत तरीके से पेश करने के लिए मीडिया को दोषी मानते हैं। उनके अनुसार यदि राहुल ने कहा कि मैं प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता, तो इसका मतलब था कि उनकी प्राथमिकता प्रधानमंत्री बनना नहीं, लोगों के लिए काम करना है। इसका मतलब यह नहीं कि वह प्रधानमंत्री बनना ही नहीं चाहते। अगर राहुल इसका खंडन नहीं करते हैं तो माना जाएगा कि दिग्विजय सिंह जो कह रहे हैं वही सही है और राहुल केवल बयान के लिए बयान दे रहे थे, वे प्रधानमंत्री के उम्मीदवार भी बन सकते हैं और मौका मिलने पर पद भी संभाल सकते हैं।
लेकिन राहुल के नजरिए से उनकी बातें तार्किक थीं। वे कह रहे थे कि यदि मैं शादी करके परिवार बसाऊंगा तो मेरी प्राथमिकता परिवार हो जाएगा और फिर राजनीति को बदलने का जो मिशन है उस पर ध्यान कम दे पाऊंगा। इसके बाद तो कोई यही समझेगा कि जो आदमी अपने आत्मनिर्धारित और व्याख्यायित लक्ष्य को लेकर इतना संवेदनशील हो कि शादी करने और परिवार बसाने तक से परहेज करने का संकल्प ले, वह प्रधानमंत्री क्योंकर बनना नहीं चाहेगा। आखिर इस ढांचे में तो प्रधानमंत्री बनने का अर्थ यथास्थितिवाद को पोषण ही होगा। उसके बाद राजनीति को आम कार्यकर्ताओं व युवाओं के लिए सहज बनाने यानी दलों को शुद्ध लोकतांत्रिक करना संभव हो ही नहीं सकता। राहुल की राजनीति में क्रांति लाने की यह कल्पना कितनी व्यावहारिक है इस पर बहस हो सकती है, उनकी स्वयं की ऐसी क्षमता है भी या नहीं इस पर भी भिन्न मत हो सकते हैं , पर राहुल ने जो कहा देश के आम नागरिकों ने और मीडिया ने भी उसे ठीक ही समझा और उसका उसी रूप में विश्लेषण किया जैसा किया जाना चाहिए। कांग्रेस के लिए नेतृत्व की समस्या मीडिया या आम भारतवासी की समस्या नहीं हो सकती कि लोग इनके अनुसार अर्थ निकालें। संभव है दिग्विजय सिंह और फिर शिंदे के बाद धीरे-धीरे यह पार्टी के अंदर एक अनौपचारिक मुहिम का रूप ले और फिर राहुल स्वयं या उनकी ओर से इसके संबंध में कोई छायावादी बयान आ जाए।
दिग्विजय ने यह बयान ऐसे समय दिया है जब केन्द्र में द्रमुक की समर्थन वापसी तथा सपा के तेवर से किसी समय चुनाव होने की संभावना कायम हो चुकी है। सपा की ओर से पांच-छः महीने का वक्त दिए जाने का संकेत मिल रहा है। ऐसे समय कांग्रेस में हल मान लिए गए नेतृत्व के प्रश्न का फिर से उलझना पूरी पार्टी के लिए चिंताजनक है। वैसे भी वर्तमान सरकार में महंगाई, भ्रष्टाचार आदि मामलांे के कीर्तिमान के कारण केवल आम जनता में ही नहीं, कांग्रेस के अंदर भी प्रधानमंत्री के नेतृत्व को लेकर असंतोष है। राहुल के बयान के बाद धीरे-धीरे कांग्रेस के सत्ता गलियारे से वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम को नेतृत्व थमाने का संकेत मिलने लगा था। दिग्विजय ही नहीं, कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता दिग्विजय के तौर- तरीकों के विरोधी रहे हैं, इसलिए वे किसी सूरत में उन्हें मनमोहन का उत्तराधिकारी बनने देना नहीं चाहेंगे। ऐसा लगता है कि सत्ता के दो केन्द्र का मुद्दा दिग्विजय ने काफी सोच समझकर उठाया है। वे दावा कर रहे हैं कि उनकी राहुल गांधी से बात हुई है। इसका अर्थ यह है कि उन्होंने स्वयं एवं अन्य नेताओं द्वारा उन्हें समझाने की कोशिश करने और उसमें सफलता की संभावना मिलने के बाद ऐसा बयान दिया है। इसमें राहुल के लिए स्वीकृति का अवसर भी मिल जाएगा। हम न भूलें कि सबसे पहले दिग्विजय सिंह ने ही कहा था कि राहुल गांधी अब बड़ी भूमिका के लिए तैयार हैं और उसके कुछ दिनों बाद सोनिया गांधी ने यही कहा और फिर स्वयं राहुल ने बयान दिया कि हां वे बड़ी जिम्मेवारी निभाने को तैयार हैं। उसके बाद उन्होंने चुनाव संबंधी समितियों के अध्यक्ष तथा जयपुर में पार्टी उपाध्यक्ष का पद स्वीकार किया। इसलिए संभव है राहुल का नेतृत्व संभालने की स्वीकृति का बयान हमारे सामने आ जाए। (संवाद)
राहुल को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की मुहिम स्वाभाविक
अवधेश कुमार - 2013-04-07 08:15
कांग्रेस में दिग्विजय सिंह ऐसे नेता हैं, जिनके पार्टी संबंधी बयानों को आरंभ में अनेक लोग गंभीरता से नहीं लेते, पर बाद में उनके हकीकत में परिणत होते हम देखते हैं। राहुल गांधी के संदर्भ में उनके इस बयान को भी कि उन्हें सोनिया गांधी की तरह किसी दूसरे को प्रधानमंत्री बनाने की जगह स्वयं बनना चाहिए, इसी कड़ी में लेना होगा। दिग्विजय के बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तो यहां तक कह दिया है कि अगली बार चुनाव जीतने के बाद राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगे।