अन्ना के नेतृत्व में 2011 में देश का अबतक का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन देखने को मिला। उस आंदोलन ने तमाम राजनैतिक पार्टियों को बेनकाब कर दिया। सबने मिलकर भ्रष्टाचार विरोधी कड़े कानून और सशक्त लोकपाल को संभव होने नहीं दिया। इसका कारण यह है कि आज भ्रष्टाचार ने सभी पार्टियों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। अबतक सभी पार्टियां कभी न कभी और किसी न किसी रूप में सत्ता में रह चुकी है। सत्ता में रहकर उनके अधिकांश नेता भ्रष्टाचार का स्वाद चख चुके हैं। इसलिए वे ऐसी व्यवस्था नहीं चाहते, जिसमें भ्रष्टाचार करना असंभव हो जाए और उनके किए गए भ्रष्टाचार के कारण वे जांच के शिकार बने।
राजनैतिक पार्टियों द्वारा दिखाए गए रवैये के कारण यह जरूरी हो गया था कि भ्रष्टाचार विरोधी वह आंदोलन खुद एक राजनैतिक पार्टी का रूप प्राप्त कर ले। कोई कानून तो अंततः संसद से ही बनना है और यदि संसद मंे बैठे लोगों ने यह जिद कर ली कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा कानून और सशक्त लोकपाल नहीं बनने देंगे, चाहे आंदोलन की तीव्रता कुछ भी हो और आमरण अनशन करके चाहे जितने लोग अपनी देह का त्याग कर दे, तो फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में लगे लोगों के पास खुद ही संसद में पहुंचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। सत्ता बदलने के लिए लोकतांत्रिक तरीका यहां हमेशा उपलब्ध है। इसलिए यहा सत्ता का परिवर्तन मिश्र अथवा लीबिया की तरह हिंसक तरीकों से नहीं हो सकती। यहां कोई भी बदलाव संवैधानिक प्रक्रिया के तहत ही हो सकता है और हमारा संविधान इस तरह के बदलाव को संभव भी बनाता है। इसलिए राजनैतिक पार्टी में तब्दील होकर ही वह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कर सकने की सामथ्र्य रखता था।
जाहिर है इस आंदोलन की स्वाभाविक परिणति के रूप में अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन किया। पर श्री केजरीवाल के उस प्रयास को उस समय शुरुआती धक्का लगा, जब उनके आंदोलन का नेतृत्व कर रहे अन्ना हजारे ने नई पार्टी में शामिल होने से न केवल इनकार कर दिया, बल्कि इसके गठन को भी व्यर्थ बताने लगे। पार्टी के गठन के प्रति अन्ना हजारे का वह रवैया निश्चय ही उचित नहीं था। दरबसल अन्ना एक बहुत ही सीधे साधे और ईमानदार आदमी हैं, जिन्होंने देखा है कि किसी तरह से चुनावों के दौरान पैसा बहाया जाता है और जीत उसी की होती है, जो पैसा बहाने में सक्षम हैं। इसके कारण उन्हें यह लगा होगा कि नई पार्टी का गठन करके तबतक चुनाव नहीं जीता जा सकता है, जबतक आपके पास पैसे नहीं हों ओर पैसा भ्रष्टाचार किए बिना नहीं आ सकता। शायद इसी कारण अन्ना ने अरविंद केजरीवाल द्वारा गठित पार्ठी से न केवल अपने को दूर रखा, बल्कि इसके बारे में नकारात्मक बातें भी करते रहे। पर इसके साथ साथ वे केजरीवाल के पक्ष में कुछ अच्छी टिप्पणियां भी करते रहे। उनकी बातों से लग रहा था कि वे आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की नई राजनैतिक मुहिम को लेकर संशय की स्थिति में हैं। उन्हें कभी कभी लगता है कि केजरीवाल का समर्थन करना चाहिए और कभी लगता है कि उनके राजनैतिक प्रयासों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए।
यह तो रही अन्ना की बात। इधर दिल्ली विधानसभा का आमचुनाव आम आदमी पार्टी और उनके नेता अरविंद केजरीवाल के लिए खास मायने रखता है। इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना उनके और उनकी आम आदमी पार्टी के राजनैतिक भविष्य के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसका कारण यह है कि दिल्ली भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का केन्द्र था और आंदोलन की तीव्रता सबसे ज्यादा यही महसूस की गई थी।
फिलहाल दिल्ली की राजनीति दो ध्रवीय है। पिछले कई दशको से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के अलावा यहां कोई मजबूत तीसरी ताकत बन ही नहीं पाई है। 1990 के दशक में मंडल और मंदिर आंदोलन के कारण जनता दल एक छोटी तीसरी ताकत बनी थी। 1993 के विधानसभा चुनाव मे उसे 10 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और उसके 4 विधायक भी निर्वाचित हुए थे, पर जनता दल की समाप्ति के साथ इस छोटी सी ताकत का भी सफाया हो गया और यहां का राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच ही ध्रुवीकृत होती रही।
अब आम आदमी पार्टी बनाकर अरविंद दिल्ली की राजनीति में वह करना चाहते हैं, जो आजतक हुआ नहीं। वे कांग्रेस और भाजपा को पछाड़कर आम आदमी पार्टी की सरकार बनाना चाहते हैं। यदि उनकी पार्टी कुछ विधानसभा सीटों पर जीतकर दिल्ली विधानसभा को त्रिशंकु बनाने में भी सफल हो गई, तो अरविंद केजरीवाल की भारी जीत मानी जाएगी और वे अपनी शर्तों पर किसी भी पार्टी की सरकार बनवाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की नजीर पेश कर सकेंगे। पर सवाल उठता है कि क्या यह संभव है?
दिल्ली की राजनीति में पिछले कई चुनावों से कांग्रेस का पलड़ा भारी रहा है। 1998 और उसके बाद हुए तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई है और शीला दीक्षित तब से ही यहां की मुख्ष्यमंत्री बनी हुई है। 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की ही जीत हुई थी। भारतीय जनता पार्टी इस बात की संतोष कर सकती है कि उसने 2012 और उसके पहले हुए 2007 के नगर निगम चुनाव में भारी जीत प्राप्त की थी। लेकिन भाजपा के लिए चिंता का कारण भी आज वही है। 2007 में नगर निगम के चुनाव में शानदार जीत हासिल करने वाली भाजपा अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई थी। यही कारण है कि 2012 के नगर निगम चुनाव की उसी जीत इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव मे जीत की गारंटी नहीं देती।
अरविंद केजरीवाल ने बिजली और पानी की महंगी दरों को अपना राजनैतिक मुद्दा बना रखा है। इसके लिए उन्होंने 15 दिनों तक अनशन भी किया और उनका दावा है कि 10 लाख से ज्यादा परिवारों ने उनसे लिखित वायदा किया है कि वे बिजली का बिल नहीं जमा करेंगे। आने वाले दिनों मे ंकेजरीवाल का बिजली और पानी आंदोलन जारी रहेगा। उनका यह मुद्दा वास्तव में बहुत बड़ा है और चुनाव की तस्वीर को बदलने की क्षमता भी रखता है, पर उनकी पार्टी की जीत या हार इस बात पर निर्भर करती है कि वे लोगों के बीच यह भरोसा दिला पाते हैं या नहीं कि उनकी पार्टी सत्ता की एक ताकतवर दावेदार हैं। इसके लिए उन्हे ंबहुत ताकत लगानी पड़़ेगी। (संवाद)
दिल्ली विधानसभा चुनाव पर अरविंद केजरीवाल की नजर
क्या मजबूत तीसरी ताकत बन पाएगी आम आदमी पार्टी
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-04-12 01:20
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को एक राजनैतिक पार्टी के शक्ल देने के बाद आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की पहली परीक्षा दिल्ली विधानसभा चुनाव में होने वाली है। यह चुनाव नवंबर महीने में होने हैं। पहली बार आम आदमी पार्टी किसी चुनाव में हिस्सा लेगी। जाहिर है विधानसभा के इस चुनाव में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन की कोख से निकली इस पार्टी का भविष्य तय हो जाएगा।