देश के सभी इलाकों मंे इस तरह की घटनाएं घट रही हैं और देश की राजधानी दिल्ली को बलात्कार की राजधानी भी बन गई है। इस लेख के लिखे जाने तक दिल्ली में इस साल अबतक बलात्कार की 436 घटनाएं घट चुकी हैं और उनमें 238 घटनाएं नाबालिग लड़कियांे के साथ हुई हैं। उन मासूम बच्चों के साथ इस तरह की घटनाएं तेज हो रही हैं, जो बलात्कार की कोशिशों का विरोध तक नहीं कर सकतीं। जाहिर है, हमारें सामने बहुत विकट समस्या आ खड़ी हुई है। इस तरह घटनाओं के बीच हम अपने आपको ंसभ्य नहीं कह सकते। कानून बनते हैं। बलात्कारी गिरफ्तार भी होते हैं। लोग इन घटनाओं के बाद उबलते हैं, लेकिन फिर इस तरह की घटना घटित हो जाती है।
कानून में फांसी का प्रावधान करने के बावजूद बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी का नहीं आना यह साबित करता है कि यह कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है। आप फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर जल्द से जल्द बलात्कारियों को फांसी पर चढ़ा दीजिए, तब भी इस तरह की घटनाओं मे कमी शायद नही ंहो। इसका मतलब यह नहीं कि बलात्कारियों को फांसी न दी जाए और उनके खिलाफ मुकदमों का जल्द से जल्द निबटान नहीं किया जाए। उन्हें फांसी जरूर मिलनी चाहिए और हो सके तो न्याया ज्यादा से ज्यादा तीव्र गति से होना चाहिए। सच कहा जाय, तो जिस जगह बलात्कार की घटना घटी हो, उसी जगह अदालत भी लगनी चाहिए और वहीं पर बलात्कारियों के खिलाफ सजा भी सुनाई जानी चाहिए। यदि कानूनी प्रावधान संभव हो तो बलात्कार के स्थान क आसपास ही बलात्कारी को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। इससे संबंधित कानून जितने भी सख्त हों और न्याय की गति जितनी ज्यादा तेज हो, उतना ही अच्छा।
लेकिन इसके बाद भी बलात्कार की घटनाएं होंगी, क्योकि यह मूल रूप से कानून और व्यवस्था की समस्या नही है। यह एक सांस्कृतिक समस्या है, जिसका सामना हम आज कर रहे हैं। यह वह सांस्कृतिक समस्या है, जिसे हम सभ्यता के एक संवदेनशील मोड़ पर देख रहे हैं। 1990 के दशक के पहले की दुनिया और आज की दुनिया में आसमान जमीन का फर्क आ गया है। हममें से जिन लोगों ने ये दोनों दुनिया देखी है, वे इसके अंतर को समझ सकते हैं। देश की कृषि आधारित संस्कृति पर आधुनिकता का असर तो पड़ना ही था, 1990 के बाद की टीवी, मोबाइल और इंटरनेट की क्रांतियों ने हमारे जीवन में ऐसा मूलचूल बदलाव ला दिया है, जो अभूतपूर्व था। इस बीच बाजार भी हावी होता गया। इन तीनों क्रांतियों ने बाजार को बहुत प्रभावित किया और बाजार की संस्कृति हमारी परंपरागत कृषि संस्कृति को तार तार करने में लगी हुई है। सच कहा जाय, तो वह संस्कृति तार तार हो भी चुकी है और उसके बाद हम एक सांस्कृतिक अधोपतन के दौर से गुजर रहे हैं। उसी अधोपतन का एक नजारा हमें महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के रूप में देख रहे हैं।
टीवी, मोबाइल फोन और इंटरनेट की क्रांतियां तो हमने अपने फायदे के लिए कींए लेकिन जो क्रांतियां अच्छे काम के लिए भी की जाती है, उनका कुछ न कुछ उपफल ( बाइप्रोडक्ट) ऐसा होता है, जो हमारे खिलाफ भी जाता है। बलात्कार की घटनाएं वैसी ही एक उपफल है, जिसका हमें निदान खोजना है। कानून का अपना एक डर होता है। हमें उस डर को बढ़ावा देना चाहिए और जितना भी सख्त कानून बनाया जा सकता है, उसे बनाना चाहिए। उसे ज्यादा प्रभावी करने के लिए अदालती कार्रवाइयों की व्यवस्था में भी बदलाव करना होगा। उन सारे तरकीबो ंको अपनाना होगा, जिनसे न्याय प्रक्रिया ज्यादा से ज्यादा तेज हो और न्यायिक विलंब इतिहास की वस्तु बन जाय। यह सिर्फ एक कानून के लिए नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक व्यवस्था को ही संशोधित करना होगा, ताकि किसी भी मुदकमे के निबटारे में देर न हो सके। इसके कारण बलात्कार की घटनाओं पर कुछ तो लगाम लगेगा।
लेकिन समस्या का हल सांस्कृतिक मोर्चे पर लड़ाई लड़ने से ही होगा। किसी सांस्कृतिक समस्या का समाधान भी सांस्क्ृतिक ही हो सकता है। और सांस्कृतिक समाधान की यह लड़ाई बाजार के अंदर घुसकर लड़नी होगी, क्योंकि वर्तमान अपसंस्कृति जिसके शिकार महिलाओं समेत सभी कमजोर वर्गों के लोग हो रहे हैं, बाजार से निकल रही है। यह प्रयास सामूहिक रूप से करना होगा। महज यह कह देने से के देश के लोग अपनी मानसिकता को सुधारें, से काम नहीं चलेगा। लोग तो खुद सुधरने से रहे। उन्हें सुधारना होगा और उसके लिए सामूहिक प्रयास में राज्य को ही सबसे बड़ी भूमिका निभानी होगी।
आज बाजार इस कदर हावी है कि इसके (बाजार के) नेता समाज के नेता के रूप में सामने आने लगे हैं। वे पहले इस अपसंस्कृति को बढ़ावा देते हैं और फिर बाद में इसके दुष्परिणामों पर आंसू बहाने के लिए सबसे आगे आ जाते हैं। पूजा भट्ट का उदाहरण सामने है। बलात्कार की घटनाएं जिस अपसंस्कृति का परिणाम है, उसे बढ़ावा देने वालों में खुद पूजा भट्टृ और उनके पिता महेश भट्ट भी जिम्मेदार हैं। उन्होंने एक पाॅर्न स्टार को फिल्मों की मुख्य धारा का स्टार बना दिया। उनके पहले बिग बाॅस के कार्यक्रम में उस पाॅर्न स्टार को बुला लिया गया। उस बिग बाॅस की एंकरिंग फिल्मी दुनिया के नंबर वन सुपर स्टार सलमान खान थे। जिस महिला की नग्न तस्पीरे और ब्लू फिल्म इंटरनेट पर हो, उसे इस तरह से मनोरंजन उ़द्योग की मुख्यधारा में लाने का काम करने वाले निश्चय ही हो रहे इन बलात्कारों को लिए जिम्मेदार हैं, कयोंकि ऐसा करके वे पाॅर्न फिल्मों के देखने के प्रचलन को बढ़ावा दे रहे हैं। उन फिल्मों को देखने का यंत्र मोबाईल के रूप में करोड़ों लोगों के हाथ में आ गया है। स्मार्ट फोन के इस दौर पर पुराने अच्छे फोनसेट को मिट्टी के मोल पर बेचा जा रहा है। इसके कारण गरीब तबके के हाथों में भी वह यंत्र आ रहा है, जिससे एमएमएस किया जा जा सकता है और सेक्स क्लिप्स को देखा जा सकता है। जाहिर है, इसके कारण समाज मानसिक रुप से रुग्न हो रहा है। बाजार महिलाओं को भोग की सामग्री के रूप में पेश कर रहा है। इसे खरीद फरोख्त की वस्तु ही नहीं, बल्कि लूट खसोट की वस्तु के रूप में भी पेश कर दिया गया है। और इसका शिकार महिलाएं और अबोध बच्चियां हो रही हैं।
सांस्कृतिक अपसंस्कृति को बढ़ावा देने वाली बाजार की ताकतों पर हमें लगाम लगाना ही होगा। बाजार के माॅडल हमारें समाज के माॅडल नहीं बनें, इसके लिए जरूरी है कि राज्य बाजार के इन ब्रांड एंबेसडरों को प्रश्रय देना और सम्मानित करना बंद करे। यदि पूजा भट्ट, महेश भट्ट और सलमान खान जेसे लोग बाजारू मनोरंजन की दुनिया के साथ साथ हमारें समाज के नेता भी बनने लगें, तो उस समाज की वही हालत होगी, जिसके दर्शन हम आज कर रहे हैं। (संवाद)
फांसी के कानून से नहीं रुकेंगे बलात्कार
अपसंस्कृति फैलाने वाले बाजार की ताकतों पर लगाम लगानी होगी
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-04-25 15:42
बलात्कार की घटनाओं पर मीडिया का ध्यान जाने और लोगों का गुस्सा उमड़ने के बाद कुछ राजनेताओं द्वारा बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग मुखरित होने लगती है। आंदोलनकारी भी यही मांग करते हैं। अभी हाल ही में एक कानून भी बना है, जिसके तहत बलात्कारियों को फांसी की सजा भी दी जा सकती है, लेकिन इस कानून के बनने के बाद भी इस तरह की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं।