कोयला ब्लॉक के आबंटन के इस मामले को केन्द्र सरकार अपने स्तर पर सुलझा सकती थी। सच कहा जाय, तो कोयले के आबंटन में सैद्धांतिक तौर पर कोई गड़बड़ी नहीं हुई। जो हुआ, वह सैद्धांतिक रूप से पूरी तरह सही था। कोयले के ब्लाॅक आबंटन में यदि टेंडर और नीलामी का सहारा लिया जाता, तो इस प्रक्रिया को पूरा करने में वर्षों लग जाते, जबकि देश को कोयले की तत्काल जरूरत थी। भारत में कोयला ऊर्जा का सबसे मुख्य स्रोत है। हम तेल और तेल उत्पादों से जितनी ऊर्जा पाते हैं, उससे दुगनी ऊर्जा हम कोयले से पाते हैं। भारत में बिजली का उत्पादन मुख्य तौर से कोयले से ही होता है। स्पांज लोहे के लिए भी कोयला जरूरी है और सीमेंट उद्योग के लिए भी। भारत में कोयले का बहुत बड़ा भंडार है। यह भंडार दुनिया के सबसे बड़े भंडारों में से एक है। इसके बावजूद भारत को कोयले की अपनी मांग पूरी करने के लिए इसके आयात पर निर्भर होना पड़ा है। कोयले की घरेलू आपूर्ति और मांग में बहुत बड़ा अंतराल है और यह अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण कोयले के आयात पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है। जिस देश में दुनिया का बड़ा कोयला भंडार हो, वह कोयले का आयात करे, इससे खराब बात और क्या हो सकती है।
जाहिर है अपने भंडारों का दोहन कर कोयला पाने का निर्णय गलत नहीं था। कोयला जल्द चाहिए था, क्योंकि उसकी जल्द उपलब्धता के अभाव में हमारा बिजली, लोहा और सीमेंट सेक्टर बुरी तरह प्रभावित होता। इसलिए सरकार ने यह अच्छा किया कि उसने एक इंटर मिनिस्टिरिल स्क्रीनिंग कमिटी का गठन कर दिया और उसके द्वारा कोयला के ब्लाॅकों का आबंटन कर दिया। जल्द कोयला पाने के लिए किया गया यह निर्णय बिल्कुल सही था। जब आबंटन का काम सबसे ज्यादा हुआ, उस समय प्रधानमंत्री खुद कोयला मंत्रालय संभाल रहे थे। जल्द कोयला आबंटन के लिए उनकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन कैग की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दिखाई, उससे प्रधानमंत्री पर आज इस मसले को लेकर चैतरफा हमला हो रहा है, जो उचित तो नहीं है, लेकिन सरकार की अपनी नाकामियों के कारण ही हो रहा है।
कैग रिपोर्ट आने के बाद केन्द्र सरकार को उस रिपोर्ट की सीमाओं के बारे में लोगों को विस्तार से बताना चाहिए था। आॅडिटर हमेशा सही नहीं होते, चाहे वह सरकारी आॅडिटर हों या निजी। उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। सारे निर्णय पैसों और रुपयों की ईकाई में ही नहीं देखे जा सकते। इसके आयाम व्यापक होते हैं। केन्द्र सरकार को उन गैर वित्तीय आयामों से लोगों को अवगत कराना चाहिए था।
लेकिन यदि आप लोगो को किसी चीज से आश्वस्त कराना चाहते हैं, तो इसके लिए यह जरूरी है कि आप भी उससे आश्वस्त हों। लेकिन इस मामले में तो लग रहा था कि जो लोग सरकार की आरे से सफाई दे रहे थे, वे खुद भी अपनी बातों के लिए आश्वस्त नहीं थे। इस तरह की समझ के साथ वह कोलगेट के मसले पर दूसरे लोगों को कैसे आश्वस्त कर सकते थे?
यह सही है कि सैद्धांतिक रूप से सरकार का निर्णय सही होने के बावजूद भी व्यावहारिकता के धरातल पर गड़बडि़यां हुईं, लेकिन वे गड़बडि़यां ऐसी नहीं थीं कि उन्हें दुरुस्त नहीं किया जा सकता था। अनेक लोगों ने कोयला ब्लाॅक लेकर उससे कोयले का दोहन किया ही नहीं अथवा वैसा करने के लिए तय सीमा के तहत कोई कार्रवाई नहीं की। वैसे आबंटनों को मंत्रालय अपने ही स्तर पर रद्द कर सकता था। उसके लिए लिए सीबीआई जांच की कोई जरूरत ही नहीं थी। कुछ लोगों और कंपनियो ने काॅल ब्लाॅक लेकर दूसरों को बेच दिए और मुनाफा कमाया। सरकार मुनाफे की उस राशि का जब्त कर सकती थी और वैसे लोगों को दंडित भी कर सकती थी। इसके लिए भी सीबीआई जांच की कोई जरूरत नहीं थी। जहां तक राजनीतिज्ञों के रिश्तेदारों को किए गए आबंटन का सवाल है तो यह अपने आपमें गलत कैसे हो सकता है? यदि एक मंत्री का बेटा मंत्री बन सकता है, तो फिर उसका बेटा व्यापार क्यों नहीं कर सकता और उद्योग क्यों नहीं स्थापित कर सकता?
जहिर है कैग द्वारा रिपोर्ट आने के बाद केन्द्र सरकार के लोगों ने इससे संबंधित मामले को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया और आबंटन कर शर्तों को उल्लंघन करने वाली कंपनियों के खिलाफ जो फौरी कार्रवाई उसे करनी चाहिए थी, उसने वह भी नहीं किया। इसका असर यह हुआ कि आज सीबीआई, अटार्नी जनरल एडीशनल सोलिसीटर जनरल व सुप्रीम कोर्ट इस मामले में शामिल हो चुके हैं और केन्द्र सरकार इसमें बुरी तरह फंसी हुई नजर आ रही है। (संवाद)
कोलगेटः तिल का बन गया ताड़
रणनैतिक विफलता ने राजनैतिक संकट पैदा किया
नंतु बनर्जी - 2013-05-02 17:40
कथित कोयला घोटाले के मामले में केन्द्र की सरकार आज जिस संकट में फंसी हुई है, उसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है। यह कोई बहुत बड़ा मसला ही नहीं था। भ्रष्टाचार का यह कोई बहुत बड़ा मामला भी नहीं है, लेकिन नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की एक रिपोर्ट के बाद केन्द्र सरकार ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दिखाई, उसके कारण वह खुद दलदल में फंसती चली गई। यदि उसने समझदारी दिखाई होती और आॅडिटर की रिपोर्ट आने के बाद अपनी बातों को सही तरीके से रखा आता तो आज यह नौबत ही नहीं आती।